सब अपने अपने करीने से मुन्तजिर उसके.....
सिक्किम आये लगभग महीने भर हो रहा | यहाँ अगर मैं सबसे ज्यादा कुछ महसूस कर रहा तो वो है आचार्य की कमी |बनारस से बाहर जहां भी गया साथ में आचार्य थे रोज रोज | यहाँ अकेला पड़ गया |
आचार्य की ये बड़ी बिशेषता है की सब उनको अपने सबसे करीब मानते हैं | पर मैं उन सब लोगों से ज्यादा अपने करीब मानता हूँ|आज यहाँ अपने आचार्य को कुछ पुराना याद दिला रहा हूँ ....
यही मौसम रहा होगा, हिंदी विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हर वर्ष की तरह तुलसी जयंती का आयोजन था, बलराज सर लड़कों को बटोर रहे थे , दरअसल उस समय विभाग में नवागन्तुक छात्रों की भीड़ रहती है , जो अभी अभी स्नातक पास करके आये रहते हैं अगर इसी विश्वविद्यालय के छात्र हो तो गोष्ठी संगोष्ठी का अभ्यास रहता है मगर मेरे जैसे बाहरी के लिए तो इन सब से पहला सामना था | उस वर्ष बाहरी छात्रों की आमद ज्यादा हुई थी इसलिए बलराज सर को प्रयास ज्यादा करना पड़ा ये समझाने के लिए की तुलसी बाबा को जन्मदिन के दिन जरुर याद करना चाहिए | फिलहाल सभा शुरू हुई कुछ गुरुजन ,कुछ अग्रज सबने अपनी बात रखी | फिर नवागंतुको से भी आग्रह किया गया ,अधिकतर लोग संकोच में अगल बगल की तरफ देखने लगे और सीट के अंतिम दोनों तरफ के छात्र दीवारों की तरफ | फिर एक छात्र खडा हुआ, और तुलसी बाबा पर बोलना शुरू किया ढेर सारी चौपाई ,ढेर सारे प्रसंग सुनाते हुए उसने अपनी बात ख़त्म की | उसने क्या क्या कहा ये तो नहीं याद मगर वो आवाज और वो शैली बहुत प्रभावशाली थी ,उस प्रभाव की एक छोटी सी बानगी मैं उस व्याख्यान के बाद अपनी अज्ञानता पर इतना हीनता बोध से ग्रषित हो गया की शाम को ही संकट मोचन से तुलसी बाबा की सारी किताबें खरीद लाया की अब पढना होगा | वो पहली मुलाकात थी हमारी आचार्य के आचार्यत्व से ,और वो आजीवन के लिए हमारे जीवन में तारी हो गयी | रविशंकर जी को हम लोग आचार्य कहते थे, कभी भी नाम नहीं लिया और अब ये आदत में शुमार है तो शायद ही मैं कहीं उनका नाम लिख पाऊं|
मैंने वर्ष २००६ में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रवेश के लिए आवेदन किया ,प्रवेश परीक्षा में बहुत अच्छा नंबर न होने पर विभाग द्वारा प्रवेश की गुंजाइश ख़त्म कर दी गयी थी | मैं हर तरफ से हिरास निरास होकर लौटने लगा था की अचानक रास्ते में आचार्य मिले , अपने अंदाज में पूछा ,बालक क्या हुआ? ,मैंने अपनी सारी व्यथा-कथा उनको सुना दी | तब आचार्य ने ढांढस बधाया और कहा लगे रहो जरुर हो जाएगा | उसके बाद जब तक मेरा प्रवेश नहीं हुआ मैं जब भी विभाग जाता मेरी नजरें सिर्फ आचार्य को खोजती ,मेरे लिए आशा की किरण सिर्फ एक आचार्य ही थे ,और अंततः प्रवेश के बाद उन्होंने मेरा साहित्य से परिचय करवाया, पत्र-पत्रिकाओं के बारे में बताया | उसके बाद से मेरी सुबह भी उन्ही के साथ और शाम भी, अब ?????
मैंने कभी नहीं सोचा था की आचार्य पर संस्मरण लिखूंगा ,सोचा था मगर, ये की जब संस्मरण लिखने की उम्र होगी तब उनके साथ में बिताये छात्र जीवन पर कुछ कुछ लिख कर हम लोग भी चर्चित होंगे | आज लिखते समय भी लग रहा की अभी लिख कर फ़ोन करूँगा और सुनाऊंगा उनको | फिर वो कोई एक वाक्य में गलती निकाल कर कहेंगे बड़े आये संस्मरण लिखने वाले | आचार्य का हमारे बीच से यूँ चले जाना ...|
आचार्य के जाने के बाद उनके साथ बिताये तमाम पल जेहन में आवा जाही कर रहे है , जो की इस बात को मानने ही नहीं दे रहे की अब आचार्य हमारे बीच नहीं | आचार्य के बिषय में अब कुछ लिखना कितना कठिन कार्य है ये मैं ही जान रहा हूँ ,वरना सब जानते हैं की मेरा सबसे प्रिय कार्य आचार्य पर लिखना ही था | आचार्य ने साहित्य का जो पाठ हम लोगों को पढ़ाया था वही आज हमारी आधारभूमि है | न जाने कितने छात्र आज इस बात के लिए उनके ऋणी हैं कि उनकी जिन्दगी में आचार्य के होने का क्या मतलब था | मुझे नहीं पता की आज के 10 साल बाद आने वाली पीढ़ी हमारे बैच के किसी छात्र को जानेगी की नहीं , मगर मुझे १०० फीसदी पता है की आचार्य को उस पीढ़ी और उस पीढ़ी के बाद के बच्चे भी जानेंगे | जहाँ तक मुझे याद है काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग भारत के सर्वश्रेष्ठ विभाग होने के बावजूद साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय नहीं था, २००५ के बाद से हमारे अग्रजों ने साहित्यिक कार्यक्रमों को करवाने की पहल की और आगाज़ के बाद इसे परवान चढ़ाया आचार्य ने| युवा कवि संगम का होना आचार्य की ही देन थी | यहाँ मैं उसमें शामिल किसी शख्स की भूमिका को कमतर नहीं कहता मगर इस कार्यक्रम के संयोजन से लेकर सम्पूर्णता में आचार्य ही थे | साहित्यिक कार्यक्रमों का सयोंजन वो बड़े मन से करते थे , विभाग का कोई कार्यक्रम उनके बिना पूर्ण नहीं हो सकता था | इसके पीछे सिर्फ सिर्फ एक ही कारण था उनका साहित्य के प्रति लगाव| एम ए में आने के बाद कौन सा वर्ष ऐसा गुजरा होगा जिसमें आचार्य ने कोई गोष्ठी संगोष्ठी न कराई हो |साथ ही बनारस में कोई साहित्यिक गोष्ठी हो रही हो और उसमे आचार्य न जाए ऐसा कदापि संभव नहीं ,अगर कहीं घर गये हो तो हर हाल में सुबह लौटना और शामिल होना | कहीं न कहीं अपने स्वास्थ्य के ऊपर ध्यान न दे पाने की वजह भी ये भागदौड़ ही थी जो आज उनके हमारे बीच से चले जाने का कारण बनी |
आचार्य का पठन-पाठन के साथ साथ किताबों को खरीदने और सहेजने का जो तरीका था ,वो उनसे रश्क करने का कारण बन सकता था | साहित्य की अधिकतर पठनीय और महत्वपूर्ण किताबें उनके पास थी | समकालीन लेखकों में कौन नहीं था जिसे आचार्य ने पढ़ा न हो या उसकी किताब उनके पास न हो |पुस्तक मेला लगने पर दिल्ली जरुर जाना होता और किसी कारण वश न जा पाए तो जो जाए उसे सूची बना कर सौपते थे की क्या क्या आपको लाना है | खुद कवि होने के कारण कविता में उनकी ज्यादा दिलचस्पी थी ,मगर कथा साहित्य में अगर कोई नाम चर्चा में आ रहा तो फिर वो रात उस लेखक के नाम कुर्बान | मैं जब कभी आचार्य से कहता था की आप लिखते क्यूँ नहीं ? आचार्य हमेशा समझाते की पहले खूब पढ़ लिया जाए फिर लिखा जाएगा | इस बात का आचार्य पालन भी करते थे मैंने हमेशा देखा की लिखने से पहले सम्बंधित बिषय खूब पढ़ते थे | यही एक कारण भी था की थीसिस लिखने में जो देर हुई | हम सभी दोस्त जानते थे की अगर किसी लेखक या किताब के बारे में जानना हो तो आचार्य से संपर्क किया जाए | बस समस्या बता कर फ़ोन काट दीजिये वो खुद फ़ोन करके सब बता देते थे | उनके जाने के बाद उनसे पूछने वाली तमाम बातों को मैं नोट कर रहा हूँ ,जब उनको फुर्सत होगी मिलूँगा और सब पूछूँगा |
आचार्य समकालीन साहित्य से न सिर्फ अपने बावस्ता होते थे अपितु हम लोगों को भी पढने पर जोर देते थे ,पत्रिकाओं में कौन छप रहा है ,कहाँ कौन लिख रहा है कौन सी पत्रिका में क्या आया है इन सबका इन्सैक्लोपिडिया थे आचार्य | जब हमलोगों के बीच संभावना पत्रिका निकालने की सहमती बनी तो सबने सम्पादक के लिए आचार्य के नाम की ही सहमति दी | संवेद पत्रिका का जब विश्वविद्यालय पर अंक निकल रहा था तो हमारे विश्विद्यालय के अंक का सम्पादन आचार्य ने ही किया था |
आचार्य जितना मिलनसार व्यक्तित्व बहुत मुश्किल है ,हो सकता है लोगों को लगे की मैं उनका दोस्त हूँ तो ऐसी बात कर रहा मगर आप उनसे परिचित किसी से मिल कर पूछिये | उनके साथ स्नातक में पढने वाला कौन छात्र ऐसा होगा जो आचार्य को न जानता (यहाँ स्नातक कहने का मतलब कम से कम १०० छात्र से ऊपर है ) हो,और किसका नाम आचार्य को ना याद हो , मैं सुकेश तिवारी से बात कर रहा था जो स्नातक के दौरान उनके अनन्य मित्र थे ,उन्होंने बताया की हम लोगों के बीच आचार्य का जो सम्मान था वैसा कम ही देखने को मिलता था | आचार्य जैसा सम्मान देते थे वो भी अपने में अनूठा है वो हर छात्र चाहे वो स्नातक का हो या परास्नातक का सबको मित्र का ही संबोधन करते और सबसे हाथ मिलाते | जबकि मैंने देखा है कैसे लोग सिनिअर जूनियर करते रहते हैं | मुझे लगता है की पूरे विश्वविद्यालय में अगर कोई छात्र अंतर अनुशासनिक बिषय में रूचि रखता होगा तो वो आचार्य को जरुर जानता होगा ,हर विभाग से उनका संपर्क थे,हर बिषय के बड़े विद्वानों के व्याख्यान वो जरूर सुनते थे |
आचार्य हमेशा मदद को तत्पर रहते थे ,पिछले 8 साल के दौरान कोई छात्र अगर बीमार पड़ा तो आचार्य उसका हाल चाल जरुर लेते थे | कभी कभी हम झल्ला जाते थे कि अरे डाक्टर है न वो ठीक कर देगा आपके जाने से होगा, वो बिना गुस्साए ,मुस्कुरा के कहते अरे तुम चलो ,मैं आता हूँ देखकर | सबके लिए आचार्य थे हर समय हर परिस्थिति में| एक बार मेरे गाँव से एक मरीज आये ,गंभीर बीमार इमरजेंसी में भर्ती घर वालों ने मेरा नंबर भी दे दिया की ये बी एच यू में पढ़ते है मदद करेंगे| मैं अस्पताल जाने से उतना ही बचता था | परेशान होने पर आचार्य से संपर्क किया | आचार्य तो बने ही मदद करने के लिए थे | तब से नियमित उस मरीज के डिस्चार्ज होने तक आचार्य मुझे लिवा कर जाते और मरीज के देखभाल कर रहे लोगों को समझाते ,मैं चुपचाप खड़ा ये सब देखता रहता | जब कभी आचार्य पूछते अस्पताल चलोगे तो मैं समझ जाता की कोई छात्र बीमार है ,क्यूंकि अपने तो कभी दिखाने के लिए साथ चलने को नहीं कहते ,अपना हर काम अकेले कर आते थे |
मेरे लिए बनारस और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय हमेशा महत्वपूर्ण रहा ,कहीं आऊं जाऊं लौट कर जब पहुँचता तो बड़ा सुकून मिलता, अगर आचार्य को पता रहता की मैं आ रहा, और कभी ऐसा हुआ नहीं की उन्हें बिना बताये मैं आऊं बनारस ,तो बनारस में मेरी ट्रेन पहुची नहीं की आचार्य का फ़ोन आ जाता की आओ मैं इंतज़ार कर रहा ,अब जाने पर कौन इंतजार करेगा | और बनारस का जो आकर्षण था वो भी ख़त्म ,आखिर बनारस को मैं जाना भी तो आचार्य के कारण ही | वो घाटों पर एक किनारे से दुसरे किनारे तक सब कुछ बतलाते हुए ले जाना | गोदौलिया की गलियों में घुमाना | मैंने बनारस को जितना जाना आचार्य के मार्फ़त से जाना | संगीत का कौन सा समारोह था जिसे आचार्य सुनने नहीं जाते थे ,ध्रुपद समारोह हो ,या संकट मोचन समारोह , रात रात भर संगीत सुनते | एक प्रसंग याद आ रहा है, आचार्य मैं और विशाल गंगा महोत्सव में राजन साजन मिश्र को सुनने गये थे ,सुन कर जब लौटने को हुआ तो तय हुआ कहीं खाना खा लिया जाए | एक ही दूकान खुली थी जोकि शायद पराठा खिला रहा था | खाने के बाद तीनों लोग एक रिक्शे पर सवार हुए | दुर्गाकुंड चौराहे पर एक बड़ा सा होर्डिंग लगा हुआ था उसी गंगा महोत्सव का ,उसमे एक जगह लिखा था अर्ध शास्त्रीय गायक | आचार्य ने पूछा ये अर्ध शास्त्रीय क्या होता है , विशाल ने छूटते ही उत्तर दिया सेमी क्लासिकल ..आचार्य ने जिस अंदाज से “हूँ” कहा की मुझे हंसी आ गयी विशाल के पूछने पर आचार्य ने बताया की आपके तरह ही एक विद्वान् थे उनसे किसी ने पूछा था पानी क्या होता है तो उन्होंने बताया “वाटर” |
आचार्य का जीवन बड़ा नियम सयंम से चलता था ,छात्र जीवन की आदतानुसार हम घर से आये पैसे तुरंत ख़त्म कर देते फिर महीने भर उधार से काम चलाते, मगर आचार्य कभी भी ऐसा नहीं करते हर काम बिलकुल फिट| जब भी हम कहते की आचार्य पैसा दे दीजिये या आचार्य ये खिला दीजिये तो आचार्य का सुप्रसिद्ध कथन था की यही २०० रूपया है पर्स में और इसी में महिना चलाना है चाहे आप महीने के पाहिले दिन कहे या अंतिम दिन, आचार्य यही बात कहते थे तो हम लोग लोग धीरे धीरे कहने लगे थे की जीवन न चल जाएगा आपका इसमें | हालांकि जो कह दो आचार्य खिलाते थे और जब पैसा मांगो दे देते थे | उनके होने से मुझे अपने होने का एहसास था |
आचार्य जल्दी किसी बात पर नाराज नहीं होते थे ,होते भी थे तो केवल अतार्किक बहसों से ,लेकिन लाख नाराज हो जाएँ मगर वो बात उस प्रसंग के साथ ही ख़त्म, दुसरे दिन जब आप मिलेंगे तो आपको लगेगा ही नहीं की इसी शख्स से रात में बहसा-बहसी हो रही थी सुबह उसी तरह का व्यवहार जैसे हमेशा से था | मुझे याद है युवा कवि संगम के दूसरे आयोजन के अंतिम दिन मेरी उनसे किसी बात पर बहस हो गयी ,जिसमे मैंने उनसे ख़राब तरीके से बात कर दी | बात तो कर दी आचार्य वहाँ से चले गये ,मगर मेरे अन्दर एक डर बैठ गया आचार्य के नाराज होने का ,किसी तरह खुद को मना कर मैं यूनिवर्सिटी छोड़कर दिल्ली के लिए निकल पड़ा ,अभी लंका पहुंचा नहीं था की आचार्य मोबाइल स्क्रीन पर चमक उठे ,फोन उठाने पर उधर से आवाज आई डॉ कब जा रहे हो ..बस मुझे वापस प्राण मिल गये मैंने कहा आचार्य अभी ,बस आचार्य इतना सुनते ही वहाँ प्रकट हो गये और मेरे साथ मुगलसराय तक आये और जब तक ट्रेन नहीं चल दी तब तक रुके रहे ,ये थे आचार्य ,अगर उस दिन वो हमारे साथ न होते तो इस बात को लेकर मैं अपराध बोध महसूस करता की मैंने आचार्य से ऐसे बातें कर दी ,मगर आचार्य का बड़प्पन हमेशा हमें उबार लेता था |
ऐसी तमाम बातें जिनमे आचार्य हैं वो आजीवन के लिए हमारे साथ जुडी है | अगर आप आचार्य को कुछ लिख पढ़ कर दिखाया की आचार्य देखिये ठीक लिखा है तो पहले अपना सिग्नेचर करते और कहते अब ठीक | आप कोई भरा हुआ फार्म दिखाए की आचार्य देखिये कोई गलती तो नहीं तो कहते बिना मेरे साइन के मान्य नहीं होगा और हमें डराते की कर रहा हूँ | उनके हस्ताक्षर किये हुए तमाम कागज़ात आज मेरे मेज और अलमारी में हैं | जिन दिनों मैं अपना एम.फिल लिख रहा था ,और बाद में पी एच डी की थीसिस लिखने के दौरान उनको दिखाए हर पेज पर उनकी दस्तखत मौजूद होगी |
आचार्य से आप कोई बात बताइये अगर बात सही है तब तो मान लेंगे की सही कह रहे हो डाक्टर ,और किंचित मात्र सहीं नहीं है तो फिर कहेंगे- अच्छा (फिर किसी बड़े विद्वान् का नाम लेकर) एक वो हुए थे और एक आप विद्वान् | आचार्य लोक की कहावतों और मुहावरों का खूब प्रयोग करते थे ,अपनों के बीच ठेठ भदेस भी चलता और समाज में सामजिक | लोकगीतों के बड़े जानकार थे और ऐसा नहीं था की ये जानकारी गाँव में रहने के कारण हुई , वो तो हाई स्कूल से ही बनारस जैसे बड़े शहर में रहते थे मगर लोक के प्रति जो उनका जुड़ाव था, वो उन्हें उस तरफ खीच ले जाता था , आप उनकी कविताओं में लोक के पति बिशेष आग्रह देखेंगे | जब कभी आप उन्हें कहीं राह चलते देख कर पूछ दीजिये यहाँ कहाँ आचार्य? तो जवाब हाजिर है – “सड़क का आदमी हूँ सड़क पर ही मिलूँगा” | और यात्रा में रुकने के प्रबंध पर जवाब था कि- “दिन बागों में बीता / रात पटरी पे सोया” | ये सब वो बातें हैं जो आचार्य के बाद हम किससे सुनेंगे |
जिन्दगी में तमाम लोग आपको मिलेगे जो आपका भला करेंगे ,और जब भला करेंगे तो आपको अच्छे भी लगेंगे | मगर अच्छे तो तब है की किसी का बुरा न करते हों | आचार्य ऐसे ही थे ,आजतक किसी का बुरा नहीं किया जहां तक हो सका सबका भला करने की ही कोशिस की | कितनी बार मैंने देखा की ये जानते हुए की सामने वाला आचार्य के खिलाफ है ,आचार्य कभी उसके खिलाफ नहीं हुए |
आचार्य किस तरह हमारे बीच से चले गये इस पर मुझे कभी भरोषा नहीं हुआ ,जितने नियम सयंम से वो रहते थे शायद ही छात्र जीवन में लोग पालन कर पाए | मुझे न लगा है न लगेगा ,बस बात यही दुःख देती है की वो अब फोन नहीं करते नहीं तो एम.ए के बाद से बहुत गंभीर परिस्थिति में ही कोई दिन हो जिस दिन हमारी बात न हुई हो ,अन्यथा मैं कहीं रहूँ बिना आचार्य से बात किये बिना दिन नहीं गुजरता था | अब गुजार रहा इससे बड़ा दुःख और क्या देखना था इस जीवन में अभी | अन्दर से एक ललक थी जो कुछ जानता आचार्य से बता देता,ऐसी सारी बातें जमा हो रही हैं कि जब आचार्य मिलेंगे तो उनसे बताने के लिए| मुझे आजीवन इस बात पर गर्व रहेगा की मैंने आचार्य के साथ पढ़ाई की है उनके संरक्षण में जीवन व्यतीत किया है | होने और न होने की कोई बात नहीं आचार्य जैसे पहले थे वैसे आज भी है मेरे साथ ....

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