
आचार्य शुक्ल ने निबंध को गद्य की कसौटी कहा था। मानते थे कि ‘भाषा की पूर्ण शक्ति
का विकास निबंधों में ही सबसे अधिक संभव है।’ इसमें लेखक की व्यक्तिगत विशेषता को
अभिव्यक्त करने का अवसर सबसे अधिक रहता है- विशेषतः उस प्रकार के निबंध में जिसे
व्यक्तिव्यंजक या व्यक्तित्वव्यंजक निबंध कहते हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी व्यक्तिव्यंजक
निबंध को ‘व्यक्ति की स्वाधीनता चिंता की उपज’ मानते हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के
व्यक्तिव्यंजक निबंध भारतेंदुयुग और द्विवेदीयुग के निबंधों से तो भिन्न हैं ही, आचार्य शुक्ल के
प्रसिद्ध ‘चिंतामणि’ के निबंधों से भी भिन्न हैं। दोनों के निबंध दो व्यक्तित्वों का आभास देते हैं,
वे दो व्यक्तियों की ‘स्वाधीन चिंता की उपज’ हैं। द्विवेदीजी ने न तो अपने पूर्ववर्ती भारतेंदु-
प्रतापनारायण-बालमुकुंद गुप्त की निबंध कला का अनुकरण किया, न गुलेरीजी और पूर्ण सिंह की
निबंध कला का। उन्होंने अपने लिए अपना सांचा अलग बनाया। उन्होंने अपने लिए अपना सांचा
अलग बनाया। उन्होंने निबंध की विशेषता ही यह बताई कि ‘इस क्षेत्रा में अनुकरण नहीं चल सकता,
क्योंकि कोई भी दो व्यक्ति हू-ब-हू एक ही रुचि और संस्कार के नहीं होते।’ शुक्ल जी से उनके
निबंध भिन्न हैं क्योंकि दोनों की रुचि और संस्कार में भिन्नता है। यद्यपि द्विवेदीजी की निबंध-शैली
का सबसे अधिक अनुकरण हुआ, फिर भी उनके अनुकर्ताओं के निबंधों में भी उनकी ‘व्यक्तिगत
स्वाधीन चिंता’ ही ‘व्यक्तिगत विशेषता’ को जन्म देती है। व्यक्तिव्यंजक निबंध की यह ‘विशेषता’
उसे रोमांटिक भाव-बोध से जोड़ देती है।
यहीं यह प्रश्न भी विचारणीय है कि भारतेंदुयुग में नाटक के साथ निबंध का विकास कहीं उस
युग की नवजागरणोचित रोमांटिक मनोवृत्ति की ओर तो संकेत नहीं कर रहा है? क्या यह मनोवृत्ति
छायावाद में अचानक उभर आई या उसके बीज भारतेंदु युग में ही अंकुरित होने लगे थे जब
नवजागरणकालीन स्वाधीनता की चेतना का भी अरुणोदय होने लगा था। कविता और नाटक की
तो खैर पुरानी परंपरा थी, लेकिन निबंध तो उस युग की अपनी खास उपज है, क्या यह उस युग
के ‘व्यक्ति की स्वधीन चिंता की उपज’ ही नहीं है? यह पहले कविता की तुलना में गद्य के ही माध्यम
से, विशेषतः निबंध के माध्यम से व्यक्त हुई तो क्या? इसे भी भारतीय रोमांटिक उत्थान की विशेषता
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मान लेना चाहिए। कम से कम हिंदी में तो भारतेंदु युगीन रोमांटिक उत्थान की अभिव्यक्ति मौलिक
रूप से निबंधों में ही हुई।
हिंदी के व्यक्तिव्यंजक निबंधों की एक जातीय विशेषता विशेष रूप से लक्ष्य करने की है कि
उनमें अंग्रेजी के निबंधों की एकांतिक वैयक्तिकता के विपरीत सामाजिक सजीवता पाई जाती है।
भारतेंदु युग के निबंधों में आचार्य शुक्ल ने इसे विशेष रूप से रेखांकित किया था और लिखा था
कि मेलों-ठेलों, तीज-त्यौहारों पर लिखे उनके निबंधों में- ‘जनता के जीवन का रंग’ पूरा-पूरा पाया
जाता है। द्वितीय उत्थान के निबंधकारों से वे कुछ निराश-से थे, पर सामाजिक सजीवता का अभाव
वहां भी नहीं है। रायकृष्ण दास, वियोगी हरि आदि के काव्यात्मक गद्य प्रबंधों या गद्य गीतों को छोड़
दें तो बाकी सब जगह सामाजिकता का संबंध कुछ न कुछ जरूर पाया जाता है। शुक्लजी ने अपने
मनोविकार संबंधी निबंधों में भी सामाजिक जीवन से संबंध बराबर बनाए रखा है और मन की अतल
गहराइयों में डूब जाने के बजाए सामाजिक संबंधों की व्याख्या की है। उन्होंने बुद्धि के विचार पक्ष
के साथ हृदय के भाव पक्ष का भी संतुलन रखा है। यह भी कह सकते हैं कि उनके निबंधों में
द्विवेदीजी के निबंधों की तुलना में विचारपरकता अधिक है और द्विवेदीजी के निबंधों में उनके निबंधों
की तुलना में भावपरकता अधिक है। द्विवेदीजी के निबंधों का उद्देश्य है ‘हृदय की अनुभूतियों को
व्यापक और संवदनाओं को तीक्ष्ण बनाना।’ उनके व्यक्तिव्यंजक निबंध इस कसौटी पर खरे उतरते
हैं। उनका स्पष्ट विचार है, ‘जो लेख हमारे हृदय की अनुभूतियों को व्यापक और संवेदनाओं को तीक्ष्ण
नहीं बनाता वह अपने उद्देश्य में च्युत हो जाता है।’ रमेशचंद्र शाह ने लिखा है कि द्विवेदीजी के निबंध
उस अर्थ में पर्सनल नहीं हैं जिस अर्थ में लैम्ब ना मान्तेन के निबंध क्योंकि उनमें अहं का उद्रेक
नहीं, विलय है। उनका अहं किसी बड़ी सत्ता, बहुत बड़ी शक्ति के प्रति समर्पित है। इसी प्रकार
उनके निबंधों की आत्मीयता को लैम्ब या मांतेन से अलग करते हुए रमेशचंद्र शाह ने बहुत सही
लक्ष्य किया था कि ‘द्विवेदीजी की आत्मीयता विषय के साथ है, पाठक के साथ नहीं। गरज कि उनके
निबंधों का अंदाजे-बयां उनका अपना है।’
द्विवेदीजी के निबंधों का शीर्षक देखते ही यह आभास होता है कि ये फूल-पौधों पर या मौसम
पर लिखे गए हैं। तो क्या ये निबंध प्रकृति चित्राण के लिए हैं? अपने निबंधों को समझने की कंुजी
द्विवेदीजी ने ‘शिरीष के फूल’ में दे दी हैं, जब वह कहते हैं, ‘फूल हो या पेड़, वह अपने आप में
समाप्त नहीं होता। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई उंगली है। वह इशारा है।’
स्पष्ट है, अशोक हो या कुटज, आम हो, देवदारू या शिरीष हो, वह ‘किसी अन्य वस्तु’ को दिखाने
के लिए संकेत-मात्रा है। वह ‘अन्य वस्तु’ भारतीय संस्कृति की मीमांसा भी हो सकती है, मनुष्य की
जीवनी शक्ति का आख्यान भी हो सकता है, मानव सभ्यता की नियति को लेकर कोई चिंता भी
हो सकती है। द्विवेदीजी ने मेले पर भी लिखा है लेकिन केवल उसकी हँसी-खुशी मनाने के लिए
नहीं, वरन् यह याद दिलाने के लिए कि मेरे बहुधा-विभक्त मनुष्य की मिलन भूमि प्रशस्त करते हैंे।
बसंत की सबसे अधिक उछाह से अगवानी आधुनिक कवियों में निराला ने की है तो निबंधकारों
में द्विवेदीजी ने लेकिन उसकी तान भी यहां टूटती है कि वसंत आता नहीं, लाया जाता है। इसका
मतलब यह नहीं कि उनके निबंध कुछ उपदेशात्मक हैं। वे ऐसी उत्कृष्ट कलात्मक सृष्टि हैं कि उनमें
संस्कृति-समीक्षा, जीवनदृष्टि, इतिहास-रस, सौंदर्य बोध सब एक साथ संगुम्फित है। किसी-किसी
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की कविता भी शक्तिहीन उपदेश का कथन हो सकती है पर द्विवेदीजी के निबंध तो शक्ति और
सौंदर्य का आख्यान हैं। वे ब्रिटिश राज के दमन, अकाल, हिंसा और विश्वयुद्ध के विध्वंस के बावजूद
मनुष्य की अपराजेय शक्ति का जयघोष करते हैं। छायावाद शक्ति की काव्यकला को दर्शाता है तो
द्विवेदीजी का निबंध-साहित्य शक्ति की गद्य कला को। वह हिंदी निबंध के इतिहास में स्वछंदतावाद
का विजय लेख है। स्वछंदता की शक्ति का कलात्मक विस्फोट गद्य में देखना हो तो रायकृष्णदास
के गद्य काव्य को नहीं, द्विवेदीजी के व्यक्तिव्यंजक निबंधों को देखिए। रवींद्रनाथ का प्रभाव दोनों
पर है लेकिन उस प्रभाव का एक रूप ‘साधना’ और ‘छायापथ’ है तो दूसरा रूप ‘अशोक के फूल’
और ‘कुटज’ है।
‘अशोक के फूल’ द्विवेदीजी का बीज निबंध है, उसी से उनके सभी निबंध निकलते-से लगते
हैं। जीवन की जययात्रा, जीवनी शक्ति का दुर्दम अभियान, जिजीविषा, महाकाल का कुण्ठनृत्य
द्विवेदीजी के ये शब्द-गुच्छ पहली बार इसी निबंध में दिखाई देते हैं। ‘अशोक के फूल’ की ‘अन्य
वस्तु’ का संकेत बहुत कुछ उन शब्द-गुच्छों से हो जाता है। रवींद्रनाथ की एक कविता है- ‘भारततीर्थ’
जिसमें उन्होंने भारत को महामानव का समुद्र कहा है। ‘अशोक के फूल’ मानो इसी कविता का
भाष्यांतर है। भारतीय संस्कृति आर्य, अनार्य, असुर, गंधर्व आदि नाना उपादानों से बनी है। उनके
देवता, पूजोपकरण, पूजापद्धति, रीति-रस्म सब मिलकर एक हो गए हैं। अशोक का फूल भारतीय
साहित्य में गंधर्व जाति की देन है। जब शुद्ध आर्य रक्त का हिटलरी उन्माद लाखों यहूदियों की बलि
लेकर भी संतुष्ट न हो रहा हो तब द्विवेदीजी की इन पंक्तियों ने कितनी क्रांतिकारी भूमिका निभाई,
‘देश और जाति की विशुद्ध संस्कृति केवल बात की बात है। सब कुछ में मिलावट है, सब कुछ
अविशुद्ध है। शुद्ध है केवल मनुष्य की जिजीविषा।’ द्विवेदीजी का यह प्रगतिशील संस्कृति-बोध
उनकी गतिशील इतिहास-दृष्टि का परिणाम है। जो मनुष्य की जीवनी शक्ति को समर्थ बनाता है,
इतिहास की धारा उसे संजो लेती है, बाकी को बहा ले जाती है। द्विवदी जी के इतिहास के निर्मम
प्रवाह में एक नियम काम करता है, उसका ओजस्वी घोषणा पत्रा इन शब्दों में अंकित किया है, ‘‘मुझे
मानव जाति की दुदर्म-निर्मम धारा के हजारों वर्षों का रूप साफ दिखाई दे रहा है। मनुष्य की जीवनी
शक्ति बड़ी निर्मम है, वह सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही है। न जाने
कितने धर्माचारों, विश्वासों, उत्सवों और व्रतों को धोती-बहाती यह जीवनधारा आगे बढ़ी है। संघर्षों
से मनुष्य ने नई शक्ति पाई है। हमारे सामने समाज का आज जो रूप है वह न जाने कितने ग्रहण
और त्याग का फल है।’ द्विवेदीजी सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों के कलेजे से चिपटाए रखने
के हिमायती नहीं। उन्होंने परंपरा को आधुनिक दृष्टि से देखा है। इसलिए उनका विश्वास है कि
‘महाकाल के प्रत्येक पदाघात में धरती धसकेगी। उसके कुंठनृत्य की प्रत्येक चारिका कुछ न कुछ
लपेट कर ले जाएगी। सब बदलेगा, सब विकृत होगा-सब नवीन बनेगा।’ द्विवेदीजी के समग्र साहित्य
को समझने की कुंजी ‘अशोक के फूल’ में है।
‘आम फिर बौरा गए’ में ‘अशोक के फूल’ के ही संस्कृति-बोध का पुनराख्यान है। बस इसके
पीछे देश विभाजन के समय की हिंसा, मारकाट, लूट-पाट, दंगा और आगजनी का संदर्भ नया है।
द्विवेदीजी आर्यों के साथ असुरों, दानवों, दैत्यों के संघर्ष को याद करते हैं कि संघर्ष समाप्त होने के
बाद आर्यों ने असुरों के देवताओं, आचारों और विश्वासों को श्रद्धा से अपना लिया; यह ‘मनुष्य की
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अद्भुत विजययात्रा’ थी। इतिहास की गति के इस नियम के ही कारण द्विवेदीजी को अटल विश्वास
है कि मनुष्य दंगों की आग से भी बाहर निकल आएगा और एक दूसरे से मिलेगा, ‘आज इस देश
में हिंदू व मुसलमान इसी प्रकार लज्जाजनक संघर्ष में व्याप्त हैं। बच्चों और स्त्रिायों को मार डालना,
चलती गाड़ी से फेंक देना, मनोहर घरों में आग लगा देना मामूली बातें हो गई हैं। मेरा मन कहता
है कि ये सब बातें भुला दी जाएंगी। दोनों दलों की अच्छी बातें ले ली जाएंगी, बुरी बातें छोड़ दी
जाएंगी।’ मनुष्य की नियति में दृढ़ विश्वास उनके सम्यक् इतिहास-बोध का ही परिणाम है।
‘आम फिर बौरा गए’ में जो संघर्ष की धार है वह ‘शिरीष के फूल’ में भी मौजूद है। निबंध
की शुरुआत ही एक तीखे संघर्ष चित्रा से होती है, ‘जेठ की तपती धूप में, जब कि धरित्राी निर्धूम
अग्निकुंड बनी हुई थी, शिरीष नीचे से ऊपर तक फूलों से लद गया था।’ कालिदास के साहित्य
में शिरीष के प्रसंग अशोक से कुछ घटकर नहीं हैं, द्विवेदीजी चाहते तो शिरीष के सौंदर्य चित्रों की
कलादीर्घा ही सजा देते लेकिन इस निबंध में उनका ध्यान शिरीष की ‘सुषमा’ की ओर कम, ‘संघर्ष’
की ओर ज्यादा है। वह सुकुमारता से अधिक ‘जीवन की अजेयता’ का मंत्रा घोष करता है। यहां से
द्विवेदीजी के निबंधों में एक नया बिंब शुरू होता है, वह है, ‘अवधूत’ का। ‘अशोक के फूल’ में
‘महाकाल’ थे, ‘शिरीष के फूल’ में अवधूत हैं। महाकाल इतिहास की गति को दर्शाते हैं, अवधूत
संघर्ष की फक्कड़पन मस्ती को। शिरीष एक अवधूत है क्योंकि दुःख हो या सुख, वह हार नहीं
मानता-सुखम् वा यदि वा दुःखम्। सुख और दुःख में स्थिर रहना-यह एक नया सुर है जो द्विवेदीजी
के निबंधों में केवल ‘शिरीष के फूल’ और ‘कुटज’ में मौजूद है। ‘आम फिर बौरा गए’ का सामयिक
संदर्भ इसमें भी आता है जब द्विवेदीजी देश विभाजन के वात्याचक्र के भीतर भी स्थिर रह सकने वाले
गांधीजी की याद दिलाते हैं, ‘हमारे देश के ऊपर से जो यह मारकाट, अग्निदाह, लूटपाट, खून-खच्चर
का बवंडर बह गया है उसके भीतर भी क्या स्थिर रहा जा सकता है? शिरीष रह सका है। अपने
देश का एक बूढ़ा रह सका था।’ यह शिरीषधर्मा, बूढ़ा अवधूत गांधीजी हैं। निबंध का मार्मिक अंत
इस प्रकार होता है- ‘मैं जब-जब शिरीष की ओर देखता हूं तब-तब हूक उठती है- हाय, वह अवधूत
आज कहां है?’ यह निबंध गांधीजी की हत्या से उठने वाली हूक से समाप्त होता है।
संघर्ष में शिरीष का सगोतिया है ‘कुटज’ लेकिन इसमें द्विवेदीजी की ‘निज मन की दिशा, भी
शामिल है। शिवालिक की सूखी-काली चट्टानों में कुटज को फूलों से लदे हँसते-मुस्कराते देख वे
बेसाख्ता कह उठते हैं- गाढ़े के साथी! उजाड़ के साथी! अशोक, शिरीष, देवदारू विवेचन का विषय
हैं लेकिन कुटज लेखक का साथी है। उसने केवल विरही यक्ष के संतप्त हृदय को ही नहीं, बी.एच.
यू. से बहिष्कृत द्विवेदीजी के भी संतप्त हृदय को सहारा दिया था। उसने लेखक के थके हारे मन
को अपराजेय जीवनी शक्ति की प्रेरणा दी थी: वह लू में ‘हरा है और भरा भी है’। ‘दुर्जन के चित्रा
से भी अधिक कठोर पाषाण की कारा में रुद्ध अज्ञात जलस्त्रोत से बरबस रस खींचकर सरस बना
हुआ है और मूर्ख के मस्तिष्क से भी अधिक सूने गिरिकांतार में भी ऐसा मस्त बना है कि ईष्र्या होती
है। कितनी कठिन जीवनी शक्ति है! प्राण ही प्राण को पुलकित करता है, जीवनी शक्ति ही जीवनी
शक्ति को प्रेरणा देती है’ इस अंश में प्रेरणा के स्त्रोत तो स्पष्ट हैं ही, ‘दुर्जन के चित्त’ और ‘मूर्ख
के मस्तिष्क’ से द्विवेदीजी की पीड़ा के स्त्रोत का भी आभास मिलता है। जिस जिजीविषा का जयगान
करते द्विवेदीजी थकते नहीं, उसी पर पहली बार इस निबंध में सवाल उठाते हैं ‘भीतर की
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जिजीविषा-जीते रहने की प्रचंड इच्छा’ उन्हें अपर्याप्त लगने लगती है, उन्हें लगता है कि यह कोई
बड़ी बात नहीं है, ‘जिजीविषा से भी प्रचंड कोई न कोई शक्ति अवश्य है।’ वह क्या है जो मनुष्य
को जिजीविषा या इच्छा शक्ति के स्तर से ऊपर उठाता है, व्यक्तिगत सुख और दुःख की सीमा से
ऊपर उठाता है, वह है सर्वात्मबोध से ‘स्व’ का ‘सर्व’ के लिए त्याग, ‘अपने में सब और सबमें आप
इस प्रकार की एक समष्टिबुद्धि जब तक नहीं आती तब तक पूर्ण सुख का आनंद भी नहीं मिलता।
अपने आपको दलितद्राक्षा की भांति निचोड़कर जब तक सर्व के लिए निछावर नहीं कर दिया जाता
तब तक स्वार्थ खण्ड सत्य है, वह मोह को बढ़ावा देता है।’ स्वार्थ की सीमा से ऊपर उठे बगैर दुःख
से मुक्ति नहीं है। ‘दुःख और सुख तो मन के विकल्प हैं। सुखी वह है जिसका मन वश में है, दुःखी
वह है जिसका मन परवश है।’ यह दुःख और सुख की नई समीक्षा है और एक नई जीवन दृष्टि
भी। कुटज इसी नई जीवन दृष्टि का प्रतीक है। वह दुःख में, ताप में, कठोरता, में भी शान से जीता
है, उसका जीवन मंत्रा है- सुखम् वा यदि वा दुःखम्- ‘चाहे सुख हो दुःख, प्रिय हो या अप्रिय, जो
मिल जाए उसे शान के साथ, हृदय से बिल्कुल अपराजित होकर सोल्लास ग्रहण करो। हार मत
मानो।’ जो लोग कहते फिरते हैं कि द्विवेदीजी को उन्होंने सूसान लैंगर वगैरह की पुस्तक देकर उनका
ज्ञान समृद्ध किया था, वे ये पंक्तियां पढ़कर अपना भ्रम दूर कर लें। द्विवेदीजी की इन पंक्तियों में
सूसान लैंगर नहीं, वेदव्यास बोल रहे हैं।
‘कुटज’ वाली जिजीविषा ‘देवदारू’ में भी है, ‘देखता हूं, पाषाण की कठोर छाती भेद कर यह
देवदारू ने जाने किस पाताल से अपना रस खींच रहा है’ लेकिन देवदारू की असली विशिष्टता है
अभिजात्य, ‘वह नीचे नहीं उतरा-समझौते के रास्ते नहीं गया और उसने अपनी खानदानी चाल नहीं
छोड़ी।’ देवदारू जीवन-संघर्ष से अधिक सृजन और सौंदर्यबोध का वाचक बन गया है। देवदारू क्या
है? ‘धरती के आकर्षण को अभिभूत करके लहरदार वितानों की शृंखला को सावधानी से संभालता
हुआ, विपुल व्योम की ओर एकाग्रीभूत मनोहर छंद।’ फिर उसी के बाहने तांडव और समाधि का
स्वरूप स्पष्ट किया जाता है। तांडव क्या है? ‘बाह्य प्रकृति के दुर्वार आकर्षण को छिन्न करने का
उल्लास। और समाधि?’ ‘अंतः प्रकृति के असंयत फिंकाव को नियंत्रित करने के उल्लास का नाम
समाधि है।’ देवदारू तांडव के उल्लास को व्यक्त करता है और शिव की समाधि दूसरे प्रकार के
उल्लास को। यद्यपि ‘देवदारू’ में भी मस्ती है लेकिन उसमें ‘कुटज’ जैसी अंतरंगता नहीं है और फिर
शब्द और अर्थ, छंद और लय के दार्शनिक विवेचन से निबंध कुछ बोझिल भी हो गया है। उसमें
द्विवेदीजी के अन्य व्यक्तिव्यंजक निबंधों जैसा प्रवाह नहीं है।
‘नाखून क्यों बढ़ते हैं’ ऐसा निबंध है जिसमें द्विवेदीजी ने अशोक, आम, शिरीष, कुटज आदि
को माध्यम न बनाकर मनुष्य की देह प्रकृति -नाखून बढ़ने की प्रवृत्ति के बहाने मनुष्य के वास्तविक
स्वरूप और उसकी नियति की विवेचना की है। दूसरे विश्वयुद्ध के सामयिक संदर्भ ने इस विवेचन
को आश्चर्यजनक रूप से महत्वपूर्ण बना दिया है, ‘मनुष्य के इतिहास में हिरोशिमा का हत्याकांड
बार-बार थोड़े ही हुआ है।’ मनुष्य जीवन की रक्षा के लिए नाखून से शुरू करके पत्थर, लकड़ी, हड्डी,
लोहे के हथियारों से होता हुआ बंदूकों और बमों तक क्यों आ पहुंचा? क्या हिंसा उसकी मूल वृत्ति
है, बढ़ते हुए नाखून जिसकी सूचना देते हैं? प्रजातीय विकास के क्रम में सींग और पूंछ झड़ गई
मगर नाखून अब तक बने हुए हैं। क्या यही बताने के लिए मनुष्य की हिंसा वृत्ति का कभी नाश
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न होगा? ‘अब भी प्रकृति मनुष्य को उसके भीतर वाले अस्त्रा से वंचित नहीं कर रही है, अब भी
वह याद दिला देती है कि तुम्हारे नाखून को भुलाया नहीं जा सकता। तुम वही लाख वर्ष पहले के
नख-दंतावलंबी जीव हो-पशु के साथ एक ही सतह पर विचरने वाले और चरने वाले।’ समय के साथ
मनुष्य की हिंसा वृत्ति घटने के बजाए बढ़ती ही जा रही है उसी प्रकार जिस प्रकार काटते रहने के
बावजूद नाखून बढ़ते रहते हैं। तब क्या मनुष्यता के लिए कोई आशा नहीं है? वे कोई और होंगे
जो हिरोशिमा जैसे हत्याकांडों को देखकर हर तरह से हताश होकर बैठ जाते हैं। द्विवेदीजी किसी
भी हालत में मनुष्य और मनुष्यता से आशा नहीं छोड़ने वाले। वे आशा के लिए मनुष्य के सांस्कृतिक
इतिहास की ओर देखते हैं। मनुष्य के साथ पशुता लगी हुई लेकिन वह निरंतर उससे जूझता रहा
है, पशुता को पछाड़कर आगे बढ़ता रहा है क्योंकि ‘पशु बनकर वह आगे नहीं बढ़ सकता।’
दरअसल मनुष्य देह मात्रा नहीं है, इंद्रिय-मात्रा नहीं है, केवल नाम और बुद्धि तक भी सीमित
नहीं है, वह उसके भी आगे जा सकता है। जैविक धरातल उसके सबसे निम्न स्तर को सूचित करता
है। मनुष्य इस पशु-सामान्य जैविक धरातल से ऊपर उठ कर उस क्षेत्रा में विकास करता रहा है
जिसे जूलियन हक्सले मनो-सामाजिक क्षेत्रा कहते हैं। मनुष्य जिस हद तक जैविक धरातल की सीमा
को पार करके मनो-सामाजिक क्षेत्रा में आगे बढ़ता है उस हद तक उसका विकास होता जाता है और
इस क्षेत्रा में मनुष्यों के लिए विकास की अपरंपार संभावनाएं हैं। मनुष्य को अगर आगे बढ़ना है तो
उसे जैविक धरातल से ऊपर उठना होगा, पशु-सुलभ हिंसावृत्ति को त्यागना होगा, अस्त्रा बढ़ाते जाने
की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना होगा। दूसरा उपाय नहीं है- नान्यः पंथा विद्यते अयनाय। इसीलिए
भारतीय संस्कृति में इंद्रियों और मन के नियंत्राण का, संयम और त्याग का इतना महत्व है। द्विवेदीजी
लक्ष्य करते हैं कि अंग्रेजी में जो प्दकमचमदकमदबम = अनधीनता है, वह हमारी भाषा में ‘स्वाधीनता’
है। ‘हमारी समूची परंपरा ही अनजान में हमारी भाषा द्वारा प्रकट होती है।’ स्वाधीनता अर्थात स्व
की अधीनता, स्व का नियंत्राण, आत्मसंयम। ‘अपने आप पर अपने आप के द्वारा लगाया बंधन हमारी
संस्कृति की बड़ी भारी विशेषता है।’ वे महाभारत को याद करते हैं, जो सभी वर्णों के लिए सामान्य
धर्म के रूप में निर्वैर, सत्य और अक्रोध की शिक्षा देता है। द्विवेदीजी का निष्कर्ष है- ‘आत्मनिर्मित
बंधन ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है।’ जो नेता समझते हैं कि महज प्रचुर उत्पादन से मनुष्य सुखी
हो जाएगा उन्हें वे गांधीजी की याद दिलाते हैं जिन्होंने कहा था कि बाहर नहीं भीतर देखो, हिंसा
को, मिथ्या को, क्रोध और द्वेष को मन से दूर करो, ‘लोक के लिए कष्ट सहो, आराम की बात मत
सोचो’ मगर गांधीजी को गोली मार दी गई, पशुता ही हावी हुई। द्विवेदीजी ने निबंध का अंत
‘सफलता’ और ‘सार्थकता’ की अवधारणा से किया है। गांधीजी ने आत्मसंयम का जो रास्ता बताया
था वह ‘मनुष्य की वास्तविक चरितार्थता’ का रास्ता था। हथियारों के अंधाधुंध निर्माण और संग्रह
से, उनके प्रयोग से ‘क्षणिक सफलता’ तो मिल सकती है लेकिन ‘वास्तविक चरितार्थता’ नहीं।
हथियारों की होड़ बढ़ती जाती है बाह्य उपकरणों का भंडार बढ़ता जाता है, इससे सभ्यता और
संस्कृति का निर्माण और विकास नहीं होता। सभ्यता और संस्कृति का निर्माता तो सजीव और चेतन
मनुष्य है। हमें हथियारों की नहीं, मनुष्य की सोचनी चाहिए। ‘मनुष्य की चरितार्थता प्रेम में है, मैत्राी
में है, त्याग में है, अपने को सबके मंगल के लिए निःशेष भाव से दे देने में है।’ फिर यहीं नाखून
की बात पर लौटते हुए द्विवेदीजी उपसंहार करते हैं, ‘नाखूनों का बढ़ना मनुष्य की उस अंध सहजात
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वृत्ति का परिणाम है जो उसके जीवन में सफलता ले आना चाहती है; उसको काट देना उस
स्वनिर्धारिता आत्मबंधन का फल है, जो उसे चरितार्थता की ओर ले जाती है।... नाखून बढ़ते हैं तो
बढ़ें, मनुष्य उन्हें बढ़ने नहीं देगा।’
इस प्रकार द्विवेदीजी के व्यक्तिव्यंजक निबंध उन्हीें की कसौटी के मुताबिक हृदय की
अनुभूतियों को व्यापक और संवेदनाओं को तीक्ष्ण बनाते हैं। ‘अशोक के फूल’ में उन्होंने भारतीय
संस्कृति के जिस समन्वित स्वरूप का उद्घाटन किया, ‘आम फिर बौरा गए’ में उसी का पुनराख्यान
किया। ‘शिरीष के फूल’ और ‘कुटज’ दोनों संघर्ष और अपराजेय जीवन-बोध की एक ही भूमि पर
रचे गए हैं। ‘देवदारू’ शब्द और अर्थ, छंद और लय के शास्त्राीय विवेचन से कुछ बोझिल हो गया
है और उसमें उनके अन्य निबंधों जैसा प्रवाह भी नहीं है लेकिन ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं’ में विचारों
की ऊंचाई के साथ-साथ गजब का प्रवाह भी है। मनुष्य के वास्तविक स्वरूप, मानवीय नियति और
सभ्यता-समीक्षा की दृष्टि से ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं।’ हिंदी के व्यक्तिव्यंजक निबंधों के इतिहास में
बेजोड़ हैं।
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