Sunday, 3 August 2014

              
          
          दिल तो दिल, वह दिमाग भी ना रहा ...

 
           मूर्खता का भी कभी-कभी अपना एक प्रयोजन होता है| इधर कुछ लोगों ने मूर्खता को एक मूल्य के रूप में विकसित किया है| यह मूल्य कुछ दिनों से फल-फूल भी रहा है| जो किसान होगा उसे झरंगा धान के बारे में ठीक-ठीक जानकारी होगी| यह धान के साथ उगने वाला एक घास है| यह मूल धान से ज्यादा बड़ा और हरा भरा दिखता है| इसका काम बस यही होता है, उर्वर धान को हानि पहुचना| इधर साहित्य में भी कुछ झरंगा धान उग गए हैं| साहित्य नकारात्मक प्रवृत्तियों के निषेध का साधन है| मानवीय मूल्यों की स्थापना ही उसके प्रयोजन का मुख्य साध्य होता है| पर इधर कुछ लोगों ने नकारात्मकता को ही साहित्य का प्रयोजन मान लिया है| उन्हें बस लिखना है इसी का ख्याल रहता है| साहित्य के किसी भी तर्कसंगत विवेचन में उसके स्वरूप और प्रयोजन का अन्योन्याश्रित होना जरुरी है| साहित्य का प्रयोजन इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी प्रकृति क्या है| इन्हें प्रकृति से तो कुछ लेना देना है नहीं बस अपनी प्रवृत्ति  को स्थापित करना ही इनका ध्येय है|
        व्यवहारिक रूप से हमलोग उन्हीं मानकों को प्रवृत्ति मान लेते हैं जिन्हें कुछ लोगों ने अपनी सहूलियत के लिए प्रयोग में लाया है| परन्तु इस तरह के मानदण्ड बहुत ही भ्रामक होते हैं| इसका प्ररीक्षण किए बिना ही उन्हें प्रवृत्ति मान बैठना हमारे चिंतन प्रक्रिया पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है| अभिव्यक्ति के सभी खतरे उठानें की मुक्तिबोध की अभिव्यक्ति को कुछ लोगों ने एकांगी साहसिकता का प्रमाण बना लिया है| किसी साहित्कार के लिए अभिव्यक्ति का एक सबसे बड़ा जोख़िम कुछ अलग कर गुजरनें की चाह से पैदा होती है| वह ऐसा किसी योजना या कार्यक्रम के द्वरा नहीं बल्कि जीवन संघर्ष से गुजरते हुए अपने अनुभव और विवेक से करता है| जीवन संघर्ष की यही अभिलाषा उसके अंदर कुछ नया कर गुजरने की चाह पैदा करती है| लेकिन इधर कुछ साहित्कार (क्या इन्हें साहित्कार कहा जाए ? ) जीवन संघर्ष को नहीं बल्कि जुगाड़ संघर्ष को अपने अभ्व्यक्ति का मूल आधार बना लिया है| इन लोगों के लिए ग़ालिब का एक शेर याद आता है ...
     दिल तो दिल, वह दिमाग भी न रहा
      शोर-ए-सौदा-ए-ख़त-ओ खाल कहाँ    

                                       (डायरी का एक पन्ना ..)

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