दिल तो दिल, वह दिमाग भी ना रहा ...
मूर्खता का भी कभी-कभी अपना एक प्रयोजन होता है| इधर कुछ लोगों ने मूर्खता
को एक मूल्य के रूप में विकसित किया है| यह मूल्य कुछ दिनों से फल-फूल भी रहा है|
जो किसान होगा उसे झरंगा धान के बारे में ठीक-ठीक जानकारी होगी| यह धान के साथ
उगने वाला एक घास है| यह मूल धान से ज्यादा बड़ा और हरा भरा दिखता है| इसका काम बस
यही होता है, उर्वर धान को हानि पहुचना| इधर साहित्य में भी कुछ झरंगा धान उग गए हैं|
साहित्य नकारात्मक प्रवृत्तियों के निषेध का साधन है| मानवीय मूल्यों की स्थापना
ही उसके प्रयोजन का मुख्य साध्य होता है| पर इधर कुछ लोगों ने नकारात्मकता को ही साहित्य
का प्रयोजन मान लिया है| उन्हें बस लिखना है इसी का ख्याल रहता है| साहित्य के
किसी भी तर्कसंगत विवेचन में उसके स्वरूप और प्रयोजन का अन्योन्याश्रित होना जरुरी
है| साहित्य का प्रयोजन इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी प्रकृति क्या है| इन्हें
प्रकृति से तो कुछ लेना देना है नहीं बस अपनी प्रवृत्ति को स्थापित करना ही इनका ध्येय है|
व्यवहारिक रूप से हमलोग उन्हीं मानकों को प्रवृत्ति मान लेते हैं जिन्हें
कुछ लोगों ने अपनी सहूलियत के लिए प्रयोग में लाया है| परन्तु इस तरह के मानदण्ड
बहुत ही भ्रामक होते हैं| इसका प्ररीक्षण किए बिना ही उन्हें प्रवृत्ति मान बैठना
हमारे चिंतन प्रक्रिया पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है| अभिव्यक्ति के सभी खतरे उठानें
की मुक्तिबोध की अभिव्यक्ति को कुछ लोगों ने एकांगी साहसिकता का प्रमाण बना लिया
है| किसी साहित्कार के लिए अभिव्यक्ति का एक सबसे बड़ा जोख़िम कुछ अलग कर गुजरनें की
चाह से पैदा होती है| वह ऐसा किसी योजना या कार्यक्रम के द्वरा नहीं बल्कि जीवन
संघर्ष से गुजरते हुए अपने अनुभव और विवेक से करता है| जीवन संघर्ष की यही अभिलाषा
उसके अंदर कुछ नया कर गुजरने की चाह पैदा करती है| लेकिन इधर कुछ साहित्कार (क्या
इन्हें साहित्कार कहा जाए ? ) जीवन संघर्ष को नहीं बल्कि जुगाड़ संघर्ष को अपने अभ्व्यक्ति का मूल आधार
बना लिया है| इन लोगों के लिए ग़ालिब का एक शेर याद आता है ...
दिल
तो दिल, वह दिमाग भी न रहा
शोर-ए-सौदा-ए-ख़त-ओ खाल कहाँ
(डायरी का एक पन्ना ..)
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