बाढ़
में बिरवे को बचाता कहानीकार शिवेंद्र
समकालीन कथा साहित्य में कहानियों की एक बाढ़ सी
आ गई है. कलम उठाई नहीं कि एक कहानी दे
मारी. कुछ कहानीकारों ने इधर एक फैशन बना लिया हैं कि कहानी के नाम पर कुछ भी रपट
या लिस्ट तैयार कर लो एक कहानी बन जाएगी. प्रयोग के नाम पर तो ख़राब से खराब को भी
नया बनाकर परोसा जा सकता है. ऐसा ही प्रयोग समकालीन कवियों में भी कुछ लोगों ने
किया था और अपने को अज्ञेय के परम्परा के वाहक के रूप में रखकर रायता फैलाने का
काम किया. यह जादू बहुत दिनों तक चला नहीं, पाठक समझ गए. वैसे ही निर्मल वर्मा तथा
उदय प्रकाश के परम्परा के वाहक हिंदी कहानी में आजकल कहानी के नाम पर कुछ भी लिखने
का काम कर रहे हैं. हद तो तब हो जाती है जब पाठक यह नहीं समझ पाता है कि यह कहानी
है या किसी स्कूल या हॉस्पिटल का बिल रसीद. खैर....
इस बाढ़ में भी कुछ कहानीकार ऐसे हैं जिनकी
कहानियां हमारे मन पर एक गहरी और अमिट छाप छोड़ जाती हैं. इसका एक बड़ा कारण है उनका
अपने परिवेश से जुड़ाव. इन्हीं कुछ चुनिंदा कथाकारों में शिवेंद्र है जो समकालीन
कथा साहित्य में अपने दो ही कहानियों के माध्यम से पाठकों का ध्यान अपने तरफ
आकृष्ट किया है. उसके कहानियों में लोककथाओं का सृजनात्मक प्रयोग के माध्यम से
समकालीन यथार्थ का चित्रण बहुत ही सटीक ढंग से हुआ है. यहाँ लोककथा और समकालीन
यथार्थ रूप और अंतर्वस्तु दोनों धरातल पर साथ-साथ चलतें हैं. यही कारण है कि
शिवेंद्र की कहानियों में भाव और भाषा दोनों में एक रूमानियत देखने को मिलती है .कभी-कभी
तो उपरी तौर पर देखने से लगता है कि शिवेंद्र लोक के कल्पित कहानियों पर कुछ
ज्यादा मोहग्रस्त है. मोह हमेशा स्वार्थ को जन्म देता है. साहित्य तो मनुष्य के
धरातल को स्वार्थ संबंधो के संकुचित मंडल से ऊपर उठता है. लेकिन उसकी कहानी
जैसे-जैसे आगे बढ़ती जाती है साफ हो जाता है कि कहानीकार लोककथा के माध्यम से जीवन
के उस यथार्थ का चित्रण करना चाहता है जो हमारे परिवेश में रची बसी है.
इंतजार के जख्म पर सपनों का मरहम जीवनानुभूति की
बुनावट होती है. सपनों का मरना और इंतजार का ख़त्म हो जाना मनुष्यता के मर जानें
जैसे होता है. शिवेंद्र की कहानी ‘चाँदी चोंच मढ़ाएब ए कागा उर्फ़ चाँकलेट फ्रेंड्स’
इसी इंतजार और सपनों के माध्यम से संघनित यथार्थ को समझने की दिशा में पहल है.
विस्थापन के विक्षोभ से पैदा अकुलाहट हर बार हमारे स्मृतियों को झकझोर कर रख देता
है. यह विक्षोभ कुछ ऐसा होता है जैसे मरते हुए आदमी की यादें. इस कहानी में जहाँ
एक तरफ विस्थापन का दर्द है वहीं दूसरी तरफ उससे उपजे विक्षोभ और मानवीयता की पुकार.
कहानी का शिल्प और विषय वस्तु दोनों टूकड़े टूकड़े में बटें हैं, लेकिन कल्पना,
यथार्थ, सम्बेदना, और अनुभूति से मिलकर एक धागा बना है जो इस बेतरतीब यादों को एक
साकार रूप दे रहा है. यह कहानी उन तमाम लोगों की कहानी है जो विस्थापित तो हुए पर
जिंदगी बचानें के लिए. जो चले गए दर्द के साथ गए और जो रह गए उनके जाने का दर्द
लिए अब भी इंतजार कर रहें हैं. ( डायरी का एक पन्ना ..... वंशीधर )
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