Tuesday, 1 July 2014


  • समकालीन कविता के बरोह को विस्तार देती रविशंकर उपाध्याय की कविताएँ



आज जब मैं तुम्हारी कविताओं को समेट रहा था वह विस्तार पा रही थी . कछार में सोई उस पगली की कराह जो तुम्हारें आने के इन्तजार में अपनें बच्चों को एक उम्मीद दिला रही थी वह अब भी टकटकी लगाई हुई है. गाँव का वह बरगद जिसके बरोह में तुम विस्तार पा रहे थे वह आज भी खड़ा है तुम्हारें इंतजार में. जब धुंधली होने लगी थी उम्मीद की किरण और टूटने लगा था विश्वास तभी तुम्हारी काल से होड़ लेती कविताओं ने थाम लिया था. उस उम्मीद को जिसकी धरती तुम्हारें भीतर बिस्तार पा रही थी. मैंने पहली बार तुम्हारी धरती से गुजरते हुए जाना था कवि होने के यथार्थ को. भय और विश्वास के बीच मनुष्यता को जीत दिलाती तुम्हारी चेतना ख़िल उठी थी जब तुम्हारे उम्मीद से जाग उठी थी सोंधी सुगंध मिट्टी की.
             
इसी मिट्टी से शुरू होती है 
मेरी हर यात्रा 
चाहे वह रोजी रोजगार की हो 
या देशाटन ,तीर्थाटन की 
जब माँ लिपती है आँगन
 उसके गुनगुनाते स्वरों में यह मिट्टी घूल जाती है
और जब संवरती है यह मिट्टी 
फसलों में दानें उतर आते हैं 
हे ईश्वर! मेरी पथराई आँखों में इतना
पानी भर दो कि
मैं इस मिट्टी को भिंगों सकूँ
और उससे उठती सोंधी सुगंघ को 
अपने रोम-रोम में सहेज लूँ. 

तुम्हारा आना ठीक उसी तरह लगा था जैसे एक बच्चा अपने माँ की गोद में आकर सिमटता नहीं है बल्कि विस्तार पता है. जब समय अपना बहरूपिया चरित्र नेपथ्य में ढकेल रहा था तुम अपनें समय के नब्ज को पकड़ने में तल्लीन हो गए थे. तुम ठहर गए थे लेकिन तुम्हारी कविता गतिशील हो गई थी.

जब मैं नहीं सुन रहा था तुम्हें
तब मेरी कविता सुन रही थी तुम्हें 
जब मैं ठहर भी जाता हूं
तब भी गतिशील रहती है कविता  
मेरे भीतर |

आज जब तुम समकालीन कविता के नए इतिहास में कदम रख रहे थे लगा तुम्हारे कविताओं के बीच से अखुआनें लगा था वह बीज जो बरगद में बदलनें वाला था . आनें वाले समय में २०१० के बाद समकालीन कविता पर जब भी बात की जाएगी वह तुम्हारे हीं बरोह का ही विस्तार होगा.समकालीन कविता के धरातल के रंग को जहाँ कवि ठहराते जा रहे हैं वहीं तुम्हारी कविताओं में उस ठहराव के ख़िलाफ एक गति है. तुम्हारें यहाँ रंगों का ठहराव नहीं उत्सव देखनें को मिलता है.
शहर अब जंगल के करीब आ गया था
और जंगल अब थोड़ा जंगल से दूर
जंगल भाग रहा था
और जंगल होने के लिए
और शहर और शहर
पहाड़ थोड़ा और पहाड़ होना चाहता था
नदी थोड़ी और नदी
झरना थोड़ा और सफेद
समुद्र थोड़ा और नीला
कनइल और पीला होनें के लिए बेताब था
उड़हुल और गुलमोहर थोड़ा और लाल
यह झरना, समुद्र, कनइल, उड़हुल, और गुलमोहर का नहीं
रंगों का सामूहिक उत्सव था |

समकालीन कविताओं में जहाँ कुछ कवि विचार को मवाद की तरह चित्रित कर बुरे समय में नींद की तलाश कर रहे हैं वहीं तुम्हारी कविता जीवन के अनुभूतिओं को नये रूपों में ढ़ालकर समकालीन कविता के परिदृश को उर्वर बनाए रखने की उम्मीद देती है. मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन, कुंवर नारायण. केदार नाथ सिंह ने कविता के जिस जमीन को बनाया है उसके लहलहाते नई पौध की झलक है तुम्हारी कविताओं में | 
                                                               
                                                                                                                                डायरी का एक पन्ना ....

1 comment:

  1. सोंधी सुगंध मिट्टी की.
    इसी मिट्टी से शुरू होती है
    मेरी हर यात्रा
    चाहे वह रोजी रोजगार की हो
    या देशाटन ,तीर्थाटन की
    जब माँ लिपती है आँगन
    उसके गुनगुनाते स्वरों में यह मिट्टी घूल जाती है
    और जब संवरती है यह मिट्टी
    फसलों में दानें उतर आते हैं
    हे ईश्वर! मेरी पथराई आँखों में इतना
    पानी भर दो कि
    मैं इस मिट्टी को भिंगों सकूँ
    और उससे उठती सोंधी सुगंघ को
    अपने रोम-रोम में सहेज लूँ.

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