Tuesday, 8 July 2014

  चुप्पी को आवाज में बदलता कवि मदन कश्यप




             प्रेम को दुख में बदलते तो देखा है, लेकिन क्या कभी आपने दुख को प्रेम में बदलते देखा है! वैसा प्रेम जहाँ जीवन हो, मैं और तुम का बंधन नहीं| आज प्रेम जब अपने परिभाषा को बदल रहा है, वैसे समय में प्रेम के अर्थ को बचाने की चाहत वही कर सकता है जो प्रेम को शरीर की मादकता से नहीं बल्कि ह्रदय की सात्विक अनिभूति से देखता है|  जब दुख में प्रेम झलकता है तो कालिदास की आँखे भर उठती हैं| शेक्सपियर सामने आकर खड़े हो जातें हैं| निराला की अभिव्यक्ति जाग उठती हैं| शमशेर हमारी चेतना पर धीरे-धीरे छाने लगते हैं| जब प्रेम हमारी चेतना पर धीरे-धीरे छाने लगा था कि एकाएक उस यथार्थ से जा टकराया, जिसने हमारे ह्रदय, आत्मा, अनुभूति, सबको झकझोर कर रख दिया| क्या आपने कभी सुनी है प्रेम में उस टकराहट की आवाज| कभी देखा है दुख को तालाब के जल में ठहरा हुआ|

    दुख इतना था उसके जीवन में
    कि प्यार में भी दुख ही था
    उसकी आँखों में झाँका
    दुख तालाब के जल की तरह ठहरा हुआ था
    उसे बाहों में कसा
    पीठ पर दुख दागने के निशान की तरह दिखा
    उसे चूमना चाहा
    दुख होठों पर पपड़ियों की तरह जमा था
    उसे निर्वस्त्र करना चाहा
    उसने दुख पहन रखा था
    जिसे उतरना संभव नहीं था

           कविता की यात्रा नीचे से ऊपर की ओर नहीं बल्कि आंतरिक अनुभूति से बहार की ओर होती है| यही कारण है कि जीवन और संसार के प्रति उसका दृष्टिकोण अनंत संघर्ष का होता है| सत्य को पचा जाना जितना त्रासद होता है उससे ज्यादा कठिन होता है सत्य की अभिव्यक्ति| अपनें समय के सत्य को छुपा जाना जीवन की भीषणता और कला का त्रास है| आज सत्य अभिव्यक्ति में कम चुप्पी में ज्यादा परिवर्तित हो रहा है| इसलिए आज का अधिकांश सत्य हमारे वर्तमान का लडखडाता हुआ विमर्श बन कर रह गया है| बुराई उसी जगह से अपना विस्तार पाती है जहां सत्य चुप्पी में बदल जाता है| इसके बाद भी अगर कुछ बचता है तो सत्य को गल्प में बदल दिया जाता है| जो साहित्यकार अपने समय के यथार्थ से संवाद करता है वह सत्य को गल्प होने से बचा ले जाता है| सत्य के गल्प हो जाने की स्थिति में काफ्का ने विचार करते हुए कहा है “गल्प का मतलब सच से पलायन हो जाता है”|

                 समकालीन कविता के पटल पर कुछ ऐसे हीं कवियों में मदन कश्यप है जो सत्य को गल्प नहीं बल्कि जीवन की अनुभूति के रूप में बरकरार रखते हैं| मदन कश्यप ने अपने नये कविता संग्रह ‘दूर तक चुप्पी’ की कविताओं में सच जो कहने एवं गुनने की अभिव्यक्ति से एक उम्मीद जगाई है| इस संग्रह से गुजरते हुए उस त्रासद यथार्थ का चित्र हमारे सामने उपस्थित होता है जो हमारे समय का सच है|

    जब पहली बार उसने हमारे पडोसी को मारा था
    तब बेहद गुस्सा आया था |
    हमने हत्यारे के खिलाफ़ आवाजें बुलंद की थी
    और जुलुस भी निकाले थे |
    दूसरी बार जब एक पडोसी मारा गया
    तब मैं गुमशुम-सा हो गया था
    घर दफ्तर सड़क हर जगह असहाय और अकेला
    फिर जब हमारे तीन-चार पडोसी एक साथ मारे गये
    तब हम हत्यारे की जयकार करते हुए सड़कों पर उतर आये |
    अब मै अकेला नहीं था | असहाय भी नहीं | पूरी भीड़ थी साथ |
    हत्यारा अब विजेता बन चुका था | हमारा नायक |

                   यथार्थ कभी-कभी कल्पना से भी ज्यादा संघनित होता है| वह हमारे मनुष्य होने पर प्रश्न चिह्न लगा देता है| हम दुनिया को बेहतर बनाने आये है या उसे बदत्तर बनाने ? यह प्रश्न हमशा मनुष्य को सोचना चाहिए| आज मनुष्य अपनी मनुष्यता को दिनों-दिन खोता चला जा रहा है| वह बस उपभोक्ता और विक्रेता में बदल गया है| क्या मनुष्य की त्रासद अवस्था कभी ऐसी होगी हमने सोचा था? मदन कश्यप की कविता जो गुवाहाटी काण्ड पर लिखी गई है, हमारे मनुष्य होने पर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है |

    वे मजे के लिए उसके अंगों को मरोड़ रहे थे
    मजे के लिए उसके कपडे फाड़ रहे थे
    मजे के लिए उसे जलती सिगरेट से दाग रहे थे
    उन्हें बेहद मजा आ रहा था
    तमाशबीनों को अचरज हो रहा था
    कि वह एक जीवधारी की तरह चीख रही थी
    बचने के लिए गुहार लगा रही थी
    जबकि उनकी निगाह में वह सिर्फ माल थी सत्रह साल की |

     अपने को दुहरान आसन होता है,लेकिन उतना हीं मुश्किल होता है कुछ नया कर गुजरने की चाहत| नया कर गुजरने की चाहत संघर्षशील चेतना को जन्म देती है| मदन कश्यप ने अपने नये संग्रह ‘दूर तक चुप्पी’ में शिल्प और भाषा से अपने पारम्परिक कविता के रचनातमक विवेक को एक नया आयाम दिया है| इस नये संग्रह की कविताएं अपने शिल्प को लेकर ख़ास महत्वपूर्ण है| संग्रह की सभी कवितायेँ छोटी है और विषम पंक्तियों में लिखी गयी है| विषम परिस्थितियों को दर्शाती विषम पंक्तियों की कविता अपने नये प्रयोग के माध्यम से पाठक का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करती है| इस प्रयोग की खास बात यह है कि यह पाठक को यह सोचने-समझने का मौका प्रदान करती है| यह कविता की सफलता है कि उसकी अनुगूँज पाठक मन को दूर तलक ले जाती है केवल सम्वेदना के स्तर पर हीं नहीं बल्कि वर्ण-शिल्प के स्तर पर भी| कविता अपनी मारक अभिव्यक्ति में किस तरह  व्यापक सन्दर्भ को कम शब्दों में समेटती है यह आज के दौर में मदन कश्यप और उनकी कविता की महत्वपूर्ण स्थिति को दर्शाता है-
       ‘लिखना \ कब बच्चों ने छोड़ दिया रोना और माँगना’


                    डायरी का एक पन्ना.....(वंशीधर) 

Tuesday, 1 July 2014

    बाढ़ में बिरवे को बचाता कहानीकार शिवेंद्र
समकालीन कथा साहित्य में कहानियों की एक बाढ़ सी आ गई है. कलम उठाई नहीं कि एक  कहानी दे मारी. कुछ कहानीकारों ने इधर एक फैशन बना लिया हैं कि कहानी के नाम पर कुछ भी रपट या लिस्ट तैयार कर लो एक कहानी बन जाएगी. प्रयोग के नाम पर तो ख़राब से खराब को भी नया बनाकर परोसा जा सकता है. ऐसा ही प्रयोग समकालीन कवियों में भी कुछ लोगों ने किया था और अपने को अज्ञेय के परम्परा के वाहक के रूप में रखकर रायता फैलाने का काम किया. यह जादू बहुत दिनों तक चला नहीं, पाठक समझ गए. वैसे ही निर्मल वर्मा तथा उदय प्रकाश के परम्परा के वाहक हिंदी कहानी में आजकल कहानी के नाम पर कुछ भी लिखने का काम कर रहे हैं. हद तो तब हो जाती है जब पाठक यह नहीं समझ पाता है कि यह कहानी है या किसी स्कूल या हॉस्पिटल का बिल रसीद. खैर....
   इस बाढ़ में भी कुछ कहानीकार ऐसे हैं जिनकी कहानियां हमारे मन पर एक गहरी और अमिट छाप छोड़ जाती हैं. इसका एक बड़ा कारण है उनका अपने परिवेश से जुड़ाव. इन्हीं कुछ चुनिंदा कथाकारों में शिवेंद्र है जो समकालीन कथा साहित्य में अपने दो ही कहानियों के माध्यम से पाठकों का ध्यान अपने तरफ आकृष्ट किया है. उसके कहानियों में लोककथाओं का सृजनात्मक प्रयोग के माध्यम से समकालीन यथार्थ का चित्रण बहुत ही सटीक ढंग से हुआ है. यहाँ लोककथा और समकालीन यथार्थ रूप और अंतर्वस्तु दोनों धरातल पर साथ-साथ चलतें हैं. यही कारण है कि शिवेंद्र की कहानियों में भाव और भाषा दोनों में एक रूमानियत देखने को मिलती है .कभी-कभी तो उपरी तौर पर देखने से लगता है कि शिवेंद्र लोक के कल्पित कहानियों पर कुछ ज्यादा मोहग्रस्त है. मोह हमेशा स्वार्थ को जन्म देता है. साहित्य तो मनुष्य के धरातल को स्वार्थ संबंधो के संकुचित मंडल से ऊपर उठता है. लेकिन उसकी कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती जाती है साफ हो जाता है कि कहानीकार लोककथा के माध्यम से जीवन के उस यथार्थ का चित्रण करना चाहता है जो हमारे परिवेश में रची बसी है.
   इंतजार के जख्म पर सपनों का मरहम जीवनानुभूति की बुनावट होती है. सपनों का मरना और इंतजार का ख़त्म हो जाना मनुष्यता के मर जानें जैसे होता है. शिवेंद्र की कहानी ‘चाँदी चोंच मढ़ाएब ए कागा उर्फ़ चाँकलेट फ्रेंड्स’ इसी इंतजार और सपनों के माध्यम से संघनित यथार्थ को समझने की दिशा में पहल है. विस्थापन के विक्षोभ से पैदा अकुलाहट हर बार हमारे स्मृतियों को झकझोर कर रख देता है. यह विक्षोभ कुछ ऐसा होता है जैसे मरते हुए आदमी की यादें. इस कहानी में जहाँ एक तरफ विस्थापन का दर्द है वहीं दूसरी तरफ उससे उपजे विक्षोभ और मानवीयता की पुकार. कहानी का शिल्प और विषय वस्तु दोनों टूकड़े टूकड़े में बटें हैं, लेकिन कल्पना, यथार्थ, सम्बेदना, और अनुभूति से मिलकर एक धागा बना है जो इस बेतरतीब यादों को एक साकार रूप दे रहा है. यह कहानी उन तमाम लोगों की कहानी है जो विस्थापित तो हुए पर जिंदगी बचानें के लिए. जो चले गए दर्द के साथ गए और जो रह गए उनके जाने का दर्द लिए अब भी इंतजार कर रहें हैं.                                             ( डायरी का एक पन्ना ..... वंशीधर )

  • समकालीन कविता के बरोह को विस्तार देती रविशंकर उपाध्याय की कविताएँ



आज जब मैं तुम्हारी कविताओं को समेट रहा था वह विस्तार पा रही थी . कछार में सोई उस पगली की कराह जो तुम्हारें आने के इन्तजार में अपनें बच्चों को एक उम्मीद दिला रही थी वह अब भी टकटकी लगाई हुई है. गाँव का वह बरगद जिसके बरोह में तुम विस्तार पा रहे थे वह आज भी खड़ा है तुम्हारें इंतजार में. जब धुंधली होने लगी थी उम्मीद की किरण और टूटने लगा था विश्वास तभी तुम्हारी काल से होड़ लेती कविताओं ने थाम लिया था. उस उम्मीद को जिसकी धरती तुम्हारें भीतर बिस्तार पा रही थी. मैंने पहली बार तुम्हारी धरती से गुजरते हुए जाना था कवि होने के यथार्थ को. भय और विश्वास के बीच मनुष्यता को जीत दिलाती तुम्हारी चेतना ख़िल उठी थी जब तुम्हारे उम्मीद से जाग उठी थी सोंधी सुगंध मिट्टी की.
             
इसी मिट्टी से शुरू होती है 
मेरी हर यात्रा 
चाहे वह रोजी रोजगार की हो 
या देशाटन ,तीर्थाटन की 
जब माँ लिपती है आँगन
 उसके गुनगुनाते स्वरों में यह मिट्टी घूल जाती है
और जब संवरती है यह मिट्टी 
फसलों में दानें उतर आते हैं 
हे ईश्वर! मेरी पथराई आँखों में इतना
पानी भर दो कि
मैं इस मिट्टी को भिंगों सकूँ
और उससे उठती सोंधी सुगंघ को 
अपने रोम-रोम में सहेज लूँ. 

तुम्हारा आना ठीक उसी तरह लगा था जैसे एक बच्चा अपने माँ की गोद में आकर सिमटता नहीं है बल्कि विस्तार पता है. जब समय अपना बहरूपिया चरित्र नेपथ्य में ढकेल रहा था तुम अपनें समय के नब्ज को पकड़ने में तल्लीन हो गए थे. तुम ठहर गए थे लेकिन तुम्हारी कविता गतिशील हो गई थी.

जब मैं नहीं सुन रहा था तुम्हें
तब मेरी कविता सुन रही थी तुम्हें 
जब मैं ठहर भी जाता हूं
तब भी गतिशील रहती है कविता  
मेरे भीतर |

आज जब तुम समकालीन कविता के नए इतिहास में कदम रख रहे थे लगा तुम्हारे कविताओं के बीच से अखुआनें लगा था वह बीज जो बरगद में बदलनें वाला था . आनें वाले समय में २०१० के बाद समकालीन कविता पर जब भी बात की जाएगी वह तुम्हारे हीं बरोह का ही विस्तार होगा.समकालीन कविता के धरातल के रंग को जहाँ कवि ठहराते जा रहे हैं वहीं तुम्हारी कविताओं में उस ठहराव के ख़िलाफ एक गति है. तुम्हारें यहाँ रंगों का ठहराव नहीं उत्सव देखनें को मिलता है.
शहर अब जंगल के करीब आ गया था
और जंगल अब थोड़ा जंगल से दूर
जंगल भाग रहा था
और जंगल होने के लिए
और शहर और शहर
पहाड़ थोड़ा और पहाड़ होना चाहता था
नदी थोड़ी और नदी
झरना थोड़ा और सफेद
समुद्र थोड़ा और नीला
कनइल और पीला होनें के लिए बेताब था
उड़हुल और गुलमोहर थोड़ा और लाल
यह झरना, समुद्र, कनइल, उड़हुल, और गुलमोहर का नहीं
रंगों का सामूहिक उत्सव था |

समकालीन कविताओं में जहाँ कुछ कवि विचार को मवाद की तरह चित्रित कर बुरे समय में नींद की तलाश कर रहे हैं वहीं तुम्हारी कविता जीवन के अनुभूतिओं को नये रूपों में ढ़ालकर समकालीन कविता के परिदृश को उर्वर बनाए रखने की उम्मीद देती है. मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन, कुंवर नारायण. केदार नाथ सिंह ने कविता के जिस जमीन को बनाया है उसके लहलहाते नई पौध की झलक है तुम्हारी कविताओं में | 
                                                               
                                                                                                                                डायरी का एक पन्ना ....