Monday, 26 October 2015

दिल्ली की रामलीला

                
                            
गोत्र और जाति में श्रेष्ठ
मंच पर ध्यान लगाया पुजारी
तल्लीन था तुम्हारी आरती में
ठीक उसी समय उसका बेटा
अपने हवस का शिकार बना रहा था एक मासूम बच्ची को  
तुम्हारे अनुयायी तुम्हारी मूर्ति और लीला के लिए
शहर को कब्रिस्तान बनाते जा रहे थे, और
तुम पालन कर रहे थे अपने राजधर्म का 
हे राम तुम्हे क्या कहूँ ?
वह बच्ची न तुम्हारी पत्नी थी, न
किसी राजघराने की पुत्री
जिसके लिए तुम युध्य करते
वह सभ्य समाज की किसी
बिगडैल ऋषि की पत्नी भी नहीं, जो  
किसी देवता के पाप की सजा भूगत रही हो
उसके पास तो कोई हनुमान भी नहीं,
जो एक इशारे पर सोने के राजमहल को लगा सके आग  
अब देखो, तुम्हारी लीला देखते हुए
असंख्य जकड़ने आ गई है शरीर में
मेरी पसलियां,
रीढ़ की हड्डी
और फेफडे की तुलना में
कही ज्यादा जकड़ गई है मेरी सांसे
गीली राख की परत जम गई है ह्रदय पर
पीले पड़ चुके हैं डायरी और पत्र के मासूम पन्ने
हे मर्यादा पुरूषोत्तम तुम्हें क्या कहूँ ?
                   वंशीधर उपाध्याय 


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