हिंदी दिवस आमतौर पर दो तरीकों से मनाया जाता है. पहला
प्रशासन के स्तर पर पार्टीनुमा माहौल में.यहाँ काव्य पाठ होता है. कुछ अधिकारी
हिंदी में भाषण देते है.प्रीतिभोज का आयोजन होता है और लोग साथ में तस्वीरें
खिंचवाते है.दूसरा, विश्वविद्यालयों में उदासी के माहौल में. यहाँ प्रायः हिंदी के
गौरवशाली अतीत को याद किया जाता है.विद्वान जुटते है. चिंता व्यक्त करते हैं कि
हाय ! हिंदी की कितनी बुरी दशा हो गई. वस्तुतः ये दोनों तरीके सतही हैं. क्या
हिंदी सिर्फ़ कमाने –खाने की भाषा है? क्या हिंदी किसी बीमार की तरह है जिसे अपनी
चिंता के लिए एक सेवक की जरुरत है? 14 से 28 सितम्बर तक पूरे देश में हिंदी पखवाड़ा
मनाया जाता है पर हिंदी दिवस और हिंदी पखवाड़े के दौरान बहुत ही कम जगहों पर सार्थक
चर्चा होती है.अब हिंदी दिवस कर्मकांड में बदल गया है. अगर हिंदी के सामने
चुनातियाँ हैं तो अवसरों की भी लंबी फेहरिस्त है.संकट है तो संभावनायें भी हैं.
समय के साथ हिंदी का स्वरुप और उसकी चुनौतियाँ दोनों बदली हैं. अंग्रेजी के दबदबे
का संकट तो पहले से था ही, अब उसे “क्रियोलीकरण” (यानी एक भाषा में दुसरे भाषा के
शब्द मिला देना) की समस्या से भी जूझना पड़ रहा है. इधर हिंदी समाचार पत्रों और
चैनलों ने जिस बेवकूफाना ढंग से “हिंग्लिश” का प्रयोग आरंभ किया है ,वह हास्यास्पद
होने के साथ गंभीर चुनौती भी है.हिंदी में मनोरंजन केन्द्रित पत्रिकायें बढ़ रही
हैं पर विचार केन्द्रित पत्रिकाओं की कमी है.सबसे बड़ा सवाल यह है की आखिर हिंदी कब
तक अपनी समृद्ध साहित्यिक परंपरा की बदौलत बदलती चुनौतियों से टकराएगी. निःसंदेह
हिंदी की साहित्यिक परंपरा अत्यंत समृद्ध है. प्रेमचंद, फनीश्वरनाथ रेणु,
नागार्जुन, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, अज्ञेय आदि साहित्यकार अपनी रचनाओं से हिंदी
गद्य, नाटक, कविता को पर्याप्त समृद्ध कर चुके हैं .हिंदी का साहित्य दुनिया की
किसी भी समृद्ध भाषा के बराबर है.पर क्या हिंदी अपनी समृद्ध साहित्यिक परंपरा की
बदौलत ही बदलती चुनौतियों से टकराएगी ?तकनीक और ज्ञान – विज्ञान के साहित्य से दूर
रह कर क्या वह विश्व की अन्य भाषाओं का मुकाबला कर पायेगी. मूलतः चित्रात्मक होने
के बाद भी चीनी और जापानी लिपियाँ कंप्यूटर के लिए उपयुक्त हैं ,तो हिंदी क्यों
नहीं ? समाज बदल रहा है.पीढ़ियों के मूल्य बोध बदल रहें हैं.तकनीक में आमूल चूल
बदलाव हो चुके हैं. जीवन शैली पहले जैसी नहीं रही. ऐसे में क्या हिंदीभाषियों को नए तरीके नहीं अपनाने चाहिए?..तकनीक
से जुड़ने की हमारी उदासीनता हिंदी को काफ़ी नुकसान पंहुचा चुकी है.इंटरनेट पर
ज्ञान-विज्ञान की बहुत ही कम सामग्री हिंदी में है. अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र,
भौतिकी से जुडी हुई सामग्री तो न के बराबर है.ऐसे माहौल में अगर कोई युवा छात्र
अंग्रेजी भाषा का रुख करता है तो गलती किसकी है. हिंदी के लिए चिंता करने वालों को
सोचना चाहिए की ज्ञान-विज्ञान का साहित्य उत्पादित करने में हम कितने कामयाब
रहे.हम ऐसे कितने लोगों का नाम ले सकते हैं, जिन्होंने ज्ञान- विज्ञान के साहित्य
का सृजन किया हो.यह आरोप भी अक्सर लगाया जाता है की हिंदी के समाचार पत्रों के
संपादकीय अंग्रेजी अख़बारों की तुलना में कमजोर होते हैं. अगर थोड़ा निष्पक्ष होकर
देखें तो इसमें सच्चाई का अंश है. हिंदी अख़बारों के संपादकीय प्रायः राजनीतिक
घटनाओं का ही विश्लेषण करते हैं. मंगल मिशन, इसरों के कार्यक्रम, डीआरडीओ की
योजनाओं और विज्ञान की नई नई गतिविधियों पर रिपोर्ट तो पढ़ने को मिलती है पर इनसे
जुड़े सम्पादकीय शायद ही मिलते हैं. कभी महात्मा गाँधी ने कहा था “भारतीय मानस का
अधिकतम विकास अंग्रेजी के ज्ञान के बिना संभव होना चाहिए”. जब तक हिंदी में
अर्थशास्त्र, भूगोल, विज्ञान आदि की उत्कृष्ट पुस्तकें नहीं होंगी तब तक इन विषयों
को पढ़ने वाले छात्र भला हिंदी की तरफ क्यों देखेंगे.हिंदी में विश्वस्तर की
साहित्यिक कृतिंयों का अनुवाद तो बहुतायत से उपलब्ध है पर यही बात इतिहास और
समाजशास्त्र की पुस्तकों के लिए नहीं कही जा सकती. अंग्रेजी ना जानने वाला हिंदी
भाषी दुनिया के महत्वपूर्ण चिंतको और वैज्ञानिकों के विचारों से अनजान रह जाता
है.अनुवाद से इस समस्या को आसानी से दूर किया जा सकता है.ज्ञान-विज्ञान का साहित्य
सृजित करके ना सिर्फ़ हिंदी समृद्ध होगी, बल्कि हिंदी भाषी समुदाय का ज्ञान के लिए अंग्रेजी की और पलायन भी
रुकेगा.कोई भी भाषा सिर्फ़ भावनाओं से नहीं बचती. भावनायें आरंभिक जुड़ाव में मददगार
होती हैं. किसी भाषा में ज्ञान और रोजगार के अवसरों की संभावनायें ही उसे
दीर्घजीवी बनाते हैं.हाल के दिनों में हिंदी के कई ब्लॉग आरंभ हुए है.कई रचनाकारों
के भी ब्लॉग हैं.सुखद है की इन्हें पढ़ने वालों की तादाद दिनों दिन बढती जा रही है.हिंदी
की दुनिया ने तकनीक की और कदम बढ़ाया है.यह भविष्य के लिए काफ़ी सकारात्मक है.
इस बात पर गंभीरता से विचार करने की
जरुरत है कि आखिर विराट संभावनाओं वाली भाषा के समक्ष ऐसी विपरीत पारिस्थितियां
कैसे उत्पन हो गई.जिस हिंदी की वकालत महात्मा गाँधी, सुभाषचंद्र बोस, विनोबा भावे
जैसे राजनेताओं ने की उसकी सीमाथम क्यों गई. जिस हिंदी के लिए महात्मा मुंशीराम,प्रो.
चमनलाल सप्रू, श्री मोटूरी सत्यनारायण जैसे गैर हिंदीभाषी विद्वानों ने संघर्ष
किया, वह अब तक वास्तविक रूप से देश की राजभाषा क्यों नहीं बन पाई? सरकारी तंत्र
में हिंदी का विकास स्वत: न होकर अनुवाद की भाषा के रूप में क्यों हुआ ?.यह कितनी
हैरानी की बात है की आजादी के 67 साल बाद भी ससंद और उच्चतम न्यायालय के सारे काम
लगभग अंग्रेजी भाषा में होते हैं.आखिर इन चीजों के मूल में क्या है.वे कौन से तत्व
हैं जो हिंदी को सीमित रखना चाहते हैं.दशकों पहले राममनोहर लोहिया ने इन समस्याओं
पर विचार किया था.उनका निष्कर्ष था कि शासन करने वालों के लिए भाषा भी एक हथियार
होती है.प्रभु वर्ग अंग्रेजी भाषा को “सांस्कृतिक पूंजी” की तरह इस्तेमाल करता
है.यह वर्ग कभी नहीं चाहता की आम जनता की जुबान में काम हो.वह सत्ता का रहस्य बनाए रखना चाहता है.लोहिया अक्सर एक
मजेदार उदाहरण से अपनी बात समझाते थे ”देहातों में लोगों पर भूत चढ़ता है तो ओझा को
बुलवाकर मंतर से झडवाते हैं.ओझा का मंतर लोग समझने तो उसकी ओझाई और भूत दोनों खत्म
हो जाए.उसी तरह देश के बड़े वकील, डॉक्टर और मंत्री अंग्रेजी भाषा में अपनी ओझाई
चला रहे हैं.सिर्फ़ बंदूक के जरिये नहीं बल्कि ज्यादा तो गिटपिट भाषा के जरिये
लोगों को दबाए रखा जाता है.लोकभाषा के बिना लोकराज्य असंभव है”.क्या आप कल्पना कर
सकते हैं की जापान, जर्मनी, अमेरीका आदि की बड़ी बड़ी अदालतों में किसी व्यक्ति के
मुक़दमे की सुनवाई हो, और वह व्यक्ति यह न समझ पाए की उसका वकील उसकी तरफ से क्या
कह रहा है.पर हिंदुस्तानी अदालतों में यह आम बात घटना है. बड़ी अदालतों के सारे काम
अंग्रेजी भाषा में होते हैं.सवा अरब हिन्दुस्तानियों में से ऐसे कितने लोग हैं जो
पूरी तरह अंग्रेजी जानते हैं.अधिकांश लोगों को यह पता ही नहीं चल पाता की उनका
वकील क्या कह रहा है.वे एक भोली से उम्मीद पर न्यायालय का चक्कर लगाते रहते
हैं.पुलिस रिपोर्ट, इंडियन पिनल कोड की धारा और संविधान के अनुच्छेदों का उल्लेख
क्या हिंदी, तमिल और बंगला में नहीं हो सकता. अपनी भाषा में पढाई करने और काम करने
के जो लाभ हैं, उस पर दर्जनों शोध हो चुके
हैं. दुनिया के मशहुर शिक्षाविद् और समाजशास्त्री मातृभाषा की वकालत करते नहीं
थकते.बावजूद इसके हिंदुस्तान की सरकारें इस मसले पर गंभीर नहीं दिखती.भाषा का
प्रश्न आजादी के बाद से ही उपेक्षित रहा.अब तो यह प्रश्न भी लगभग अदृश्य हो गया की
हिंदी वास्तविक रूप से कब राजभाषा बनेगी.कई समूहों का मानना है की ऐसा करने से
दक्षिण भारतीय राज्यों में असंतोष फैल जाएगा.दक्षिण के लोग हिंदी का विरोध करने
लगेंगे.ऐसी दलील देने वाले लोग प्रायः दो बातें भूल जाते हैं.पहला, हिंदी का
चरित्र कभी भी साम्राज्यवादी नहीं रहा.दूसरा, हमें इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए
की दक्षिण के जिन राज्यों में कभी हिंदी का विरोध हुआ था.क्या बाद में उन राज्यों
ने अपनी अपनी भाषाओँ की प्रतिष्ठा के लिए काम किया.हाल ही में दिवंगत हुए प्रख्यात
साहित्यकार यू.आर.अनंतमूर्ति ने कभी कहा था कि अंग्रेजी के प्रभुत्व ने कन्नड़ को
दासी बना दिया है.हिंदी के साथ साथ बंगला, तमिल, गुजराती,मराठी आदि भारतीय भाषाओं
की प्रतिष्ठा बढ़े, इससे बेहतर और क्या हो सकता हैं.हिंदी के किसी भी रचनाकार और
चिन्तक ने कभी यह नहीं कहा की हिंदी को पूरे भारत में जबरन थोप दिया जाए.पर हिंदी
के लिए सकारात्मक माहौल बने,हिंदी में
सरकारी काम-काज संभव हो पाए.ऐसी इच्छा रखने में और ऐसा प्रयास करने में क्या हर्ज
है.अंग्रेजी को ज्ञान की देवी मानकर उसकी परिक्रमा करते रहने से अच्छा है की हम
अपनी भाषा को ताकतवर और समृद्ध बनाए.
हिंदी दिवस या हिंदी पखवाड़ा मनाकर हिंदी
की चुनौतियों को खत्म नहीं किया जा सकता.अगर इस दौरान कुछ सार्थक चिंतन हो और उसे
कार्यरूप दिया जा सके तो ही इसकी सार्थकता है. आजादी के पहले हिंदी जब राजभाषा
नहीं बनी थी,तब सारे देश में राष्ट्रभाषा के नाम पर उत्साह से हिंदी का स्वागत
किया जाता था.अब संविधान द्वारा राजभाषा का दर्जा दिए जाने के बावजूद वह उत्साह
नहीं दिखता.अब लोग हिंदी बोलने में हिचकते हैं.दो चार लोगों को अंग्रेजी बोलता देख
,खुद भी टूटी.फूटी अंग्रेजी बोलने लगते हैं.हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिलवाने का
आग्रह करने वालों में हिंदी भाषी कम थे, गैर हिंदी भाषी ज्यादा थे.14 सितम्बर 1949
से एक दिन पहले यानी 13 सितम्बर को संविधान सभा की बहस में जिन लोगों ने हिंदी का
पक्ष रखा, उनमे से अधिकांश की मातृभाषा
हिंदी नहीं थी.. संविधान सभा में हिंदी का पक्ष लेने वाले लक्ष्मीनारायण
साहू की मातृभाषा उड़िया थी, एन.वी. गाडगिल की मातृभाषा मराठी थी,
चेट्टी.आर.रामास्वामी की मातृभाषा तमिल और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की बंगला थी.
हमें सोचना चाहिए की आखिर किन कारणों से गैर-हिंदी प्रांत के नेताओं ने हिंदी का
पक्ष लियाआज हिंदीभाषी ही हिंदी का पक्ष लेते सकुचाता है.महात्मा गाँधी और सुभाष
चन्द्र बोस की कल्पना के साथ हिंदी क्यों निरंतर जुडी रही. क्या आज हम अपने
रोजमर्रा के जीवन में हिंदी के साथ जुड़ाव और आत्मीयता का अनुभव करते हैं.हिंदी
दिवस हर साल आता है और चला जाता है.पिछले 65 सालों से लगातार आ ही रहा है, आगे भी
आएगा. यह हम सब पर है की हम इस अवसर का कैसे उपयोग करते हैं.
असिस्टेंट प्रो. सेंट.स्टीफेंस कॉलेज, दिल्ली
मो. :
97 11 17 18 12

किसी भाषा में ज्ञान और रोजगार के अवसरों की संभावनायें ही उसे दीर्घजीवी बनाते हैं
ReplyDeleteकिसी भाषा में ज्ञान और रोजगार के अवसरों की संभावनायें ही उसे दीर्घजीवी बनाते हैं
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ReplyDeleteएक भाषा के तौर पर हिंदी की चुनौतियों से रूबरू कराती एक उम्दा लेख
ReplyDeleteएक भाषा के तौर पर हिंदी की चुनौतियों से रूबरू कराती एक उम्दा लेख
ReplyDeleteबढ़िया और सारगर्भित लेख !
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