Wednesday, 29 October 2014

अलविदा रविशंकर

                       
          कशी हिन्दू विश्वविद्यालय के राधाकृष्णन सभागार में छात्रों और शिक्षकों की नम आखें इस बात की गवाह बन रही थी कि किसी युवा साहित्कार का जाना एक सम्भावना का जाना होता है | कार्यक्रम था युवा कवि रविशंकर उपाध्याय की स्मृति में परिचय पत्रिका (संपादक श्रीप्रकाश शुक्ल) का लोकार्पण जिसका एक हिस्सा अलविदा रविशंकर नाम से युवा कवि डॉ रविशंकर उपाध्याय पर केन्द्रित है | परिचर्चा और काव्यपाठ ने कार्यक्रम को विशेष आकर्षक और सारगर्भित बनाया | यह संगोष्ठी अन्य संगोष्ठीयों से अलग थी | छात्रों के द्वारा एक छात्र पर किया गया यह आयोजन (जो अब हमारे स्मृति का हिस्सा बन चूका है ) सभी साहित्य प्रेमियों के लिए प्रेरणा स्रोत है | न कोई लोभ न किसी को खुश करने का ख्याल कुछ तो नहीं था इस कार्यक्रम में | मानवता की जगह आज भी सारे उच्तम मूल्यों से ऊपर है इस बात की प्रमाणिकता और अपने साथी को याद करने का यह मिजाज.... अनूठा ...|
          कार्यक्रम की शुरुआत मालवीय जी के माल्यार्पण और कुलगीत से शुरु हुआ लेकिन युवा साथी अभिषेक राय ने जैसे ही संचालन को आगे बढ़ाया धीर-धीरे मन और आत्मा सभागार की भींग गई | प्रमाण वहां वैठे सभी की नम आखें | स्वागत करने के लिए आये हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोo बलिराज पाण्डेय ने सम्बेदनात्मक वाक्यों से सभा को ऐसे जगह पंहुचा दिया जहाँ कुछ था तो बस रविशंकर उपाध्याय...... आचार्य .... बाबा और उम्मीद अब भी बाकि है... |  बस एक ही ख्याल काश आज तुम होते ! बहरहाल परिचय पत्रिका पर बोलने के लिए आए विंध्याचल यादव ने अपने चिर परिचित अंदाज में बोलना शुरू किया | उनके पास बहुत कुछ था जो ख़त्म होने का नाम हीं नहीं ले रहा था, खैर कार्यक्रम के दबाव के कारण इन्हें अपने मन को दबाना पड़ा | अभिषेकं ने आवाज दिया प्रोo श्रीप्रकाश शुक्ल को | डायस पर थे शुक्ल सर और मन में रविशंकर की वह यादें जिसे खुद उन्होंने अपने हाथों से गढ़ा था | रविशंकर उपाध्याय पर बोलना उनके लिए वैसा था जैसे पाला मार देने के बाद किसान अपने धान को देखता है | यह सभी मानते थे कि आचार्य जैसा शिष्य और श्रीप्रकाश सर जैसा गुरु कम लोगों को या न के बराबर मिलता है | खैर भरी मन से उन्होंने रविशंकर को याद करते हुए कहा कि रविशंकर जैसे कवि को याद करना अपने अन्दर के मनुष्यता को याद करना है | यादों की लड़ी और आखों में पानी सभागार को शांत , निश्छल , और निर्द्वन्द्व बना दिया था | स्व और पर का भेद मिट गया था | अब वक्ताओं के लिए “ नयी रचनाशीलता के विकास में साहित्यिक पत्रिकाओं की भूमिका”  पर बोलना मुश्किल हो रहा था जो पहले सत्र का विषय था | खैर साथी अभिषेक राय ने अपने संचालन वक्तव्य से विषय पर सारगर्भित प्रश्न उठाते हुए कार्यक्रम को आगे बढ़ाया | छात्रों के तरफ़ से बोलने की शुरुआत हुई | सुशील सुमन ने साहित्यिक पत्रिकाओं पर बात रखते हुए कहा कि हमेशा से ही साहित्यिक  पत्रिकाओं ने नयी रचना शीलता को आगे बढ़ाया है | पहले तो नए लेखक इन्हीं पत्रिकाओं के माध्यम से अपनी पहचान बनाते थे | इसकी कुछ आतंरिक राजनीति भी होती थी | और आज भी होती है | हाँ इधर एक नया परिवर्तन यह आया है कि सोशल मिडिया ने नयी रचनाशीलता को और एक नया मंच प्रदान किया है | रविश सिंह ने आचार्य को याद करते हुए साहित्यिक पत्रिकाओं की भूमिका पर अपनी बात रखी | आचार्य के साहित्यिक योगदान को याद करते हुए उन्होंने हिंदी विभाग के अध्यक्ष और कला संकाय प्रमुख से निवेदन किया कि आचार्य के नाम पर हिंदी विभाग के पुस्तकालय का नाम रखा जाए जिससे हिंदी साहित्य के इस कर्मयोगी के साहित्यिक योगदान को हम भविष्य तक संरक्षित कर सकें | इस प्रस्ताव का सभागार में बैठे सभी लोगों ने अपने करतल ध्वनि से स्वागत किया | कशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संघर्षशील तथा जुझारू छात्र नेता विकास यादव ने जोर देते हुए इस प्रस्ताव का समर्थन किया कि हम आचार्य के नाम पर इसलिए पुस्तकालय बनाने की मांग कर रहे है क्योंकि आचार्य ने हिंदी विभाग को नयी रचना शीलता और एक उर्वर जमीन प्रदान की, जो आने वाले समय और छात्रों के लिए प्रेरणा श्रोत है | अखिल भारतीय युवा कवि संगम , सम्भावना पत्रिका का प्रवेशांक , साहित्यिक आयोजनों की सक्रियता , कशी हिन्दू विश्वविद्यालय के नयी रचनाशीलता पर केन्द्रित संवेद पत्रिका का संपादन , तमाम पत्रिकाओं में कविताएँ तथा समीक्षा आचार्य के कम उम्र में बड़े योगदान हैं जिससे हिंदी विभाग को एक उर्वर जमीन मिली | आचार्य के मित्र तथा चाइना से पीएचडी कर रहे राजीव रंजन ने आचार्य के उस छवि को बताया जो कशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आने के बाद कैसे एक लड़का सबको साहित्यिक बनाने के लिए अपने जीवन सुख सुबिधाओं को त्याग देता है | उन्होंने कहा कि हम सभी लोग तमाम फार्म भरते थे , लेकिन आचार्य का बस एक ही सपना था एक ही लक्ष था साहित्य और पठन-पाठन | उन्होंने अपने जीवन को साहित्य के लिए ही समर्पित कर दिया था | नए से नए रचनाकार को पढना, उससे लिखवाना, नए लड़कों को मंच देना , जैसे उनका धर्म हो गया था |  श्रुति कुमुद ने आचार्य को याद करते हुए कहा जब हम सभी jrf और नौकरी के लिए परेशान थे आचार्य इन चिताओं से दूर साहित्यिक रचनाशीलता में लीन थे | उनका जीवन सिर्फ साहित्य के लिए ही बना था | आज वह हमारे बीच नहीं है ऐसा लगता ही नहीं है | लगता है कभी किधर से भी  आएंगे और पूछेंगे क्या डाक्टर आजकल क्या लिख पढ़ रही हो | काश वह आज होते... |
          डॉ प्रभाकर सिंह ने बोलते हुए कहा कि आज साहित्यिक पत्रिकाओं में जहाँ एक तरफ़ केदारनाथ सिंह जैसे कवि छप रहे हैं वहीँ अनुज लुगुन जैसे युवा रचनाकार भी | नयी रचना शीलता को साहित्यिक पत्रिकाओं ने जगह दी है और पढा भी जा रहा है | वहीँ प्रोo राजकुमार ने विषय पर बोलते हुए साहित्यिक पत्रिकाओं के योगदान का आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया | साथ ही सोशल मिडिया और नयी रचना शीलता के गुण और दोष का भी सम्यक मूल्यांकन प्रस्तुत किया | सत्र के मुख्य वक्ता प्रोo रामकीर्ति शुक्ल अब डायस पर थे आखें नम, गला भरा हुआ | बोले- बहुत कुछ था बोलने को लेकिन साहस नहीं जुटा पा रहा हूँ | क्या भूलूं क्या याद करूँ | बोलते बोलते चुप हो जा रहे थे | सभागार भी चुप था लगा कुछ पल के लिए जीवन ठहर गया हो जैसे | सभा की अध्यक्षता कर रहे कला संकाय प्रमुख ने कहा कि ऐसे पुनीत आत्मा को याद कर हम धन्य हो जाते हैं | मानवता इसी को कहते हैं | उन्होंने छत्रों को विश्वास दिलाया और विभागाध्यक्ष से अनुरोध किया कि अगर ऐसा पुनीत कार्य हमलोगों के द्वारा हो कि हम रविशंकर उपाध्याय के नाम पर पुस्तकालय बनवा सकें तो इससे बड़ा हमारे मनुष्य होने का प्रमाण और क्या हो सकता है | घन्यबाद ज्ञापन वंशीधर उपाध्याय ने किया | भाषा टूटी हुई विखरी हुई | दिल भरा हुआ और दिमाग खाली |
                     कार्यक्रम के दूसरें सत्र की अध्यक्षता प्रोo बलिराज पाण्डेय कर रहे थे | मंच पर कवि थे प्रोo श्रीप्रकाश शुक्ल , डॉ आशीष त्रिपाठी , डॉ नीरज खरे और संचालन कर रहे थे युवा साथी कुमार मंगलम | इस सत्र में BA , MA तथा पीएचडी के युवा साथियों ने अपने कविताओं का पाठ किया | सच्चे अर्थो में आचार्य की स्मृति को याद करने का इससे सुखद और महत्वपूर्ण कार्य और क्या हो सकता है | जिसने युवा रचनाकारों को एक मंच देने के लिए जीवन भर प्रयास किया उसके स्मृति में युवा रचनाकारों का कविता पाठ आचार्य की सच्ची श्रधांजलि है | इन युवा रचनाकारों ने बहुत हीं अच्छी कविताओं का पाठ किया | सभागार थोड़ा खाली जरुर हो गया था लेकिन अच्छी कविताओं ने रोचकता को बढ़ा दिया था | आशीष त्रिपाठी और नीरज खरे ने रविशंकर उपाध्याय के स्मृति को याद करते हुए अच्छी तथा सारगर्भित कविताओं का पाठ किया | वहीँ सभागार में बैठीं प्रोo चंद्रकला त्रिपाठी ने रविशंकर को याद करते हुए कहा कि उसके पास एक बहुत बड़ा ह्रदय था | रविशंकर को याद करने वालों को भी अपने ह्रदय को वस्तृत करना चाहिए | इस अवसर पर डॉ रविशंकर उपाध्याय स्मृति संस्थान के द्वारा एक युवा कविता पुरस्कार की घोषणा की गई | यह पुरस्कार हर साल एक नए युवा कवि को दिया जाएगा | साथ ही आचार्य के जन्मदिन 12 जनवरी को उनके आने वाले काव्य संग्रह “उम्मीद अब भी बाकी है” का लोकार्पण और उस पर परिचर्चा के आयोजन की घोषणा प्रोo श्रीप्रकाश शुक्ल ने किया |  अंततः
                        हुई मुद्दत,  कि ग़ालिब मर गया, पर याद  आता  है
                  वह हर इक बात पर कहना, कि यों होता, तो क्या होता
                                                   वंशीधर उपाध्याय
                                              शोध छात्र भारतीय भाषा केंद्र
                                           जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली

                                             मोबाइल - 09968158451 

Sunday, 14 September 2014

हिंदी : भाषा एक, प्रश्न अनेक - चित्तरंजन कुमार

           हिंदी दिवस आमतौर पर दो तरीकों से मनाया जाता है. पहला प्रशासन के स्तर पर पार्टीनुमा माहौल में.यहाँ काव्य पाठ होता है. कुछ अधिकारी हिंदी में भाषण देते है.प्रीतिभोज का आयोजन होता है और लोग साथ में तस्वीरें खिंचवाते है.दूसरा, विश्वविद्यालयों में उदासी के माहौल में. यहाँ प्रायः हिंदी के गौरवशाली अतीत को याद किया जाता है.विद्वान जुटते है. चिंता व्यक्त करते हैं कि हाय ! हिंदी की कितनी बुरी दशा हो गई. वस्तुतः ये दोनों तरीके सतही हैं. क्या हिंदी सिर्फ़ कमाने –खाने की भाषा है? क्या हिंदी किसी बीमार की तरह है जिसे अपनी चिंता के लिए एक सेवक की जरुरत है? 14 से 28 सितम्बर तक पूरे देश में हिंदी पखवाड़ा मनाया जाता है पर हिंदी दिवस और हिंदी पखवाड़े के दौरान बहुत ही कम जगहों पर सार्थक चर्चा होती है.अब हिंदी दिवस कर्मकांड में बदल गया है. अगर हिंदी के सामने चुनातियाँ हैं तो अवसरों की भी लंबी फेहरिस्त है.संकट है तो संभावनायें भी हैं. समय के साथ हिंदी का स्वरुप और उसकी चुनौतियाँ दोनों बदली हैं. अंग्रेजी के दबदबे का संकट तो पहले से था ही, अब उसे “क्रियोलीकरण” (यानी एक भाषा में दुसरे भाषा के शब्द मिला देना) की समस्या से भी जूझना पड़ रहा है. इधर हिंदी समाचार पत्रों और चैनलों ने जिस बेवकूफाना ढंग से “हिंग्लिश” का प्रयोग आरंभ किया है ,वह हास्यास्पद होने के साथ गंभीर चुनौती भी है.हिंदी में मनोरंजन केन्द्रित पत्रिकायें बढ़ रही हैं पर विचार केन्द्रित पत्रिकाओं की कमी है.सबसे बड़ा सवाल यह है की आखिर हिंदी कब तक अपनी समृद्ध साहित्यिक परंपरा की बदौलत बदलती चुनौतियों से टकराएगी. निःसंदेह हिंदी की साहित्यिक परंपरा अत्यंत समृद्ध है. प्रेमचंद, फनीश्वरनाथ रेणु, नागार्जुन, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, अज्ञेय आदि साहित्यकार अपनी रचनाओं से हिंदी गद्य, नाटक, कविता को पर्याप्त समृद्ध कर चुके हैं .हिंदी का साहित्य दुनिया की किसी भी समृद्ध भाषा के बराबर है.पर क्या हिंदी अपनी समृद्ध साहित्यिक परंपरा की बदौलत ही बदलती चुनौतियों से टकराएगी ?तकनीक और ज्ञान – विज्ञान के साहित्य से दूर रह कर क्या वह विश्व की अन्य भाषाओं का मुकाबला कर पायेगी. मूलतः चित्रात्मक होने के बाद भी चीनी और जापानी लिपियाँ कंप्यूटर के लिए उपयुक्त हैं ,तो हिंदी क्यों नहीं ? समाज बदल रहा है.पीढ़ियों के मूल्य बोध बदल रहें हैं.तकनीक में आमूल चूल बदलाव हो चुके हैं. जीवन शैली पहले जैसी नहीं रही. ऐसे में क्या  हिंदीभाषियों को नए तरीके नहीं अपनाने चाहिए?..तकनीक से जुड़ने की हमारी उदासीनता हिंदी को काफ़ी नुकसान पंहुचा चुकी है.इंटरनेट पर ज्ञान-विज्ञान की बहुत ही कम सामग्री हिंदी में है. अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र, भौतिकी से जुडी हुई सामग्री तो न के बराबर है.ऐसे माहौल में अगर कोई युवा छात्र अंग्रेजी भाषा का रुख करता है तो गलती किसकी है. हिंदी के लिए चिंता करने वालों को सोचना चाहिए की ज्ञान-विज्ञान का साहित्य उत्पादित करने में हम कितने कामयाब रहे.हम ऐसे कितने लोगों का नाम ले सकते हैं, जिन्होंने ज्ञान- विज्ञान के साहित्य का सृजन किया हो.यह आरोप भी अक्सर लगाया जाता है की हिंदी के समाचार पत्रों के संपादकीय अंग्रेजी अख़बारों की तुलना में कमजोर होते हैं. अगर थोड़ा निष्पक्ष होकर देखें तो इसमें सच्चाई का अंश है. हिंदी अख़बारों के संपादकीय प्रायः राजनीतिक घटनाओं का ही विश्लेषण करते हैं. मंगल मिशन, इसरों के कार्यक्रम, डीआरडीओ की योजनाओं और विज्ञान की नई नई गतिविधियों पर रिपोर्ट तो पढ़ने को मिलती है पर इनसे जुड़े सम्पादकीय शायद ही मिलते हैं. कभी महात्मा गाँधी ने कहा था “भारतीय मानस का अधिकतम विकास अंग्रेजी के ज्ञान के बिना संभव होना चाहिए”. जब तक हिंदी में अर्थशास्त्र, भूगोल, विज्ञान आदि की उत्कृष्ट पुस्तकें नहीं होंगी तब तक इन विषयों को पढ़ने वाले छात्र भला हिंदी की तरफ क्यों देखेंगे.हिंदी में विश्वस्तर की साहित्यिक कृतिंयों का अनुवाद तो बहुतायत से उपलब्ध है पर यही बात इतिहास और समाजशास्त्र की पुस्तकों के लिए नहीं कही जा सकती. अंग्रेजी ना जानने वाला हिंदी भाषी दुनिया के महत्वपूर्ण चिंतको और वैज्ञानिकों के विचारों से अनजान रह जाता है.अनुवाद से इस समस्या को आसानी से दूर किया जा सकता है.ज्ञान-विज्ञान का साहित्य सृजित करके ना सिर्फ़ हिंदी समृद्ध होगी, बल्कि हिंदी भाषी समुदाय  का ज्ञान के लिए अंग्रेजी की और पलायन भी रुकेगा.कोई भी भाषा सिर्फ़ भावनाओं से नहीं बचती. भावनायें आरंभिक जुड़ाव में मददगार होती हैं. किसी भाषा में ज्ञान और रोजगार के अवसरों की संभावनायें ही उसे दीर्घजीवी बनाते हैं.हाल के दिनों में हिंदी के कई ब्लॉग आरंभ हुए है.कई रचनाकारों के भी ब्लॉग हैं.सुखद है की इन्हें पढ़ने वालों की तादाद दिनों दिन बढती जा रही है.हिंदी की दुनिया ने तकनीक की और कदम बढ़ाया है.यह भविष्य के लिए काफ़ी सकारात्मक है.
          इस बात पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है कि आखिर विराट संभावनाओं वाली भाषा के समक्ष ऐसी विपरीत पारिस्थितियां कैसे उत्पन हो गई.जिस हिंदी की वकालत महात्मा गाँधी, सुभाषचंद्र बोस, विनोबा भावे जैसे राजनेताओं ने की उसकी सीमाथम क्यों गई. जिस हिंदी के लिए महात्मा मुंशीराम,प्रो. चमनलाल सप्रू, श्री मोटूरी सत्यनारायण जैसे गैर हिंदीभाषी विद्वानों ने संघर्ष किया, वह अब तक वास्तविक रूप से देश की राजभाषा क्यों नहीं बन पाई? सरकारी तंत्र में हिंदी का विकास स्वत: न होकर अनुवाद की भाषा के रूप में क्यों हुआ ?.यह कितनी हैरानी की बात है की आजादी के 67 साल बाद भी ससंद और उच्चतम न्यायालय के सारे काम लगभग अंग्रेजी भाषा में होते हैं.आखिर इन चीजों के मूल में क्या है.वे कौन से तत्व हैं जो हिंदी को सीमित रखना चाहते हैं.दशकों पहले राममनोहर लोहिया ने इन समस्याओं पर विचार किया था.उनका निष्कर्ष था कि शासन करने वालों के लिए भाषा भी एक हथियार होती है.प्रभु वर्ग अंग्रेजी भाषा को “सांस्कृतिक पूंजी” की तरह इस्तेमाल करता है.यह वर्ग कभी नहीं चाहता की आम जनता की जुबान में काम हो.वह सत्ता  का रहस्य बनाए रखना चाहता है.लोहिया अक्सर एक मजेदार उदाहरण से अपनी बात समझाते थे ”देहातों में लोगों पर भूत चढ़ता है तो ओझा को बुलवाकर मंतर से झडवाते हैं.ओझा का मंतर लोग समझने तो उसकी ओझाई और भूत दोनों खत्म हो जाए.उसी तरह देश के बड़े वकील, डॉक्टर और मंत्री अंग्रेजी भाषा में अपनी ओझाई चला रहे हैं.सिर्फ़ बंदूक के जरिये नहीं बल्कि ज्यादा तो गिटपिट भाषा के जरिये लोगों को दबाए रखा जाता है.लोकभाषा के बिना लोकराज्य असंभव है”.क्या आप कल्पना कर सकते हैं की जापान, जर्मनी, अमेरीका आदि की बड़ी बड़ी अदालतों में किसी व्यक्ति के मुक़दमे की सुनवाई हो, और वह व्यक्ति यह न समझ पाए की उसका वकील उसकी तरफ से क्या कह रहा है.पर हिंदुस्तानी अदालतों में यह आम बात घटना है. बड़ी अदालतों के सारे काम अंग्रेजी भाषा में होते हैं.सवा अरब हिन्दुस्तानियों में से ऐसे कितने लोग हैं जो पूरी तरह अंग्रेजी जानते हैं.अधिकांश लोगों को यह पता ही नहीं चल पाता की उनका वकील क्या कह रहा है.वे एक भोली से उम्मीद पर न्यायालय का चक्कर लगाते रहते हैं.पुलिस रिपोर्ट, इंडियन पिनल कोड की धारा और संविधान के अनुच्छेदों का उल्लेख क्या हिंदी, तमिल और बंगला में नहीं हो सकता. अपनी भाषा में पढाई करने और काम करने के जो  लाभ हैं, उस पर दर्जनों शोध हो चुके हैं. दुनिया के मशहुर शिक्षाविद् और समाजशास्त्री मातृभाषा की वकालत करते नहीं थकते.बावजूद इसके हिंदुस्तान की सरकारें इस मसले पर गंभीर नहीं दिखती.भाषा का प्रश्न आजादी के बाद से ही उपेक्षित रहा.अब तो यह प्रश्न भी लगभग अदृश्य हो गया की हिंदी वास्तविक रूप से कब राजभाषा बनेगी.कई समूहों का मानना है की ऐसा करने से दक्षिण भारतीय राज्यों में असंतोष फैल जाएगा.दक्षिण के लोग हिंदी का विरोध करने लगेंगे.ऐसी दलील देने वाले लोग प्रायः दो बातें भूल जाते हैं.पहला, हिंदी का चरित्र कभी भी साम्राज्यवादी नहीं रहा.दूसरा, हमें इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए की दक्षिण के जिन राज्यों में कभी हिंदी का विरोध हुआ था.क्या बाद में उन राज्यों ने अपनी अपनी भाषाओँ की प्रतिष्ठा के लिए काम किया.हाल ही में दिवंगत हुए प्रख्यात साहित्यकार यू.आर.अनंतमूर्ति ने कभी कहा था कि अंग्रेजी के प्रभुत्व ने कन्नड़ को दासी बना दिया है.हिंदी के साथ साथ बंगला, तमिल, गुजराती,मराठी आदि भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा बढ़े, इससे बेहतर और क्या हो सकता हैं.हिंदी के किसी भी रचनाकार और चिन्तक ने कभी यह नहीं कहा की हिंदी को पूरे भारत में जबरन थोप दिया जाए.पर हिंदी के लिए सकारात्मक  माहौल बने,हिंदी में सरकारी काम-काज संभव हो पाए.ऐसी इच्छा रखने में और ऐसा प्रयास करने में क्या हर्ज है.अंग्रेजी को ज्ञान की देवी मानकर उसकी परिक्रमा करते रहने से अच्छा है की हम अपनी भाषा को ताकतवर और समृद्ध बनाए.

        हिंदी दिवस या हिंदी पखवाड़ा मनाकर हिंदी की चुनौतियों को खत्म नहीं किया जा सकता.अगर इस दौरान कुछ सार्थक चिंतन हो और उसे कार्यरूप दिया जा सके तो ही इसकी सार्थकता है. आजादी के पहले हिंदी जब राजभाषा नहीं बनी थी,तब सारे देश में राष्ट्रभाषा के नाम पर उत्साह से हिंदी का स्वागत किया जाता था.अब संविधान द्वारा राजभाषा का दर्जा दिए जाने के बावजूद वह उत्साह नहीं दिखता.अब लोग हिंदी बोलने में हिचकते हैं.दो चार लोगों को अंग्रेजी बोलता देख ,खुद भी टूटी.फूटी अंग्रेजी बोलने लगते हैं.हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिलवाने का आग्रह करने वालों में हिंदी भाषी कम थे, गैर हिंदी भाषी ज्यादा थे.14 सितम्बर 1949 से एक दिन पहले यानी 13 सितम्बर को संविधान सभा की बहस में जिन लोगों ने हिंदी का पक्ष रखा, उनमे से अधिकांश की मातृभाषा  हिंदी नहीं थी.. संविधान सभा में हिंदी का पक्ष लेने वाले लक्ष्मीनारायण साहू की मातृभाषा उड़िया थी, एन.वी. गाडगिल की मातृभाषा मराठी थी, चेट्टी.आर.रामास्वामी की मातृभाषा तमिल और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की बंगला थी. हमें सोचना चाहिए की आखिर किन कारणों से गैर-हिंदी प्रांत के नेताओं ने हिंदी का पक्ष लियाआज हिंदीभाषी ही हिंदी का पक्ष लेते सकुचाता है.महात्मा गाँधी और सुभाष चन्द्र बोस की कल्पना के साथ हिंदी क्यों निरंतर जुडी रही. क्या आज हम अपने रोजमर्रा के जीवन में हिंदी के साथ जुड़ाव और आत्मीयता का अनुभव करते हैं.हिंदी दिवस हर साल आता है और चला जाता है.पिछले 65 सालों से लगातार आ ही रहा है, आगे भी आएगा. यह हम सब पर है की हम इस अवसर का कैसे उपयोग करते हैं.
                                                                                                            चित्तरंजन कुमार
                                         असिस्टेंट प्रो. सेंट.स्टीफेंस                                                 कॉलेज, दिल्ली
                                      मो. : 97 11 17 18 12      


   

Sunday, 31 August 2014

बेबाक कविताओं की दुनिया:जी हाँ लिख रहा हूँ.. अरमान आनंद

             बेबाक कविताओं की दुनिया:जी हाँ लिख रहा हूँ..
सर्जक की प्रसव पीड़ा को उसकी रचना ही सार्थक करती है और सर्जना जड़ता के विध्वंश और प्रजनन  के दर्द से उत्पन्न आनंद का नाम है| अपने परिवेश से कवि का सतर्क सम्बन्ध सशक्त एवं कालजयी कविताओं को जन्म देता है|निशान्त अपने संग्रह के शीर्षक "जी हाँ लिख रहा हूँ ..", आवरण चित्र और प्रस्तावना में नागार्जुन की कविता के द्वारा संकेत दे देते हैं कि वे अपनी सर्जना के प्रति कितने सतर्क ,संकल्पित और गौरवान्वित हैं| जी हाँ लिख रहा हूँ.../बहुत कुछ! बहोत -बहोत!! /ढेर -ढेर सा लिख रहा हूँ/मगर, आप उसे पढ़ नहीं पाओगे /देख नहीं सकोगे उसे आप!...जी हाँ लिख रहा हूँ...| बाबा नागार्जुन की इन पांच  पंक्तियों को अपनी पांच लम्बी कविताओं का प्रतिनिधि स्वर बनाकर कवि ने अपना रूख बिलकुल साफगोई से सामने रख दिया है| जी हाँ लिख रहा हूँ.. शीर्षक  इस ध्वन्यात्मकता के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है ,जैसे वह कालचक्र का इतिहास लिखने जा रहा हो ... ,जैसे उसने भांप ली हो चाल समय के पहिये की |संग्रह की कवितायें एक प्रकार से यात्रा कवितायेँ है, जो कवि के जीवनानुभव को साथ लेकर चलती हैं |व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन एक यात्रा ही तो है|जन्म से मृत्यु की यात्रा ,अज्ञान से ज्ञान की यात्रा ,अबोध से बोध, बोध से शास्त्र, शास्त्र से अनुभव, अनुभव से बौद्धिकता की यात्रा ,कहा भी गया है कि यात्रा ही जीवन है और ठहराव मृत्यु | संग्रह में उतरते ही निशान्त कोलकाता को  कविता के कैनवास पर  बिखेर देते हैं| चित्र दर्शन के बहाने से पाठक को कालयात्री बना देते हैं |कोलकाता के सीने पर बिछी हुई हैं पटरियां , कहते ही  वे कोलकाता की प्राच्य -आधुनिकता ,टून...टून..टून की आवाज के साथ सांस्कृतिक बोध और बैलगाड़ी और उसके  चलने की आवाज कहते ही समय के पारिवार्तनिक नैरंतैर्य की यात्रा पर पाठक को  अनायास ही रवाना कर देते हैं |कोलकाता कभी हाथ में रिक्शा बन दौड़ पड़ता है, तो कभी पिताजी  की सीख में सामंत बनकर खड़ा दिखता है|फिर यह यात्रा पाताललोक  में सरक आती है, जहाँ पाताल लोक कोलकाता के साथ-साथ कवि के बचपन में भी बसा है और साथ ही बसा है दादी की कहानियों में |यह पाताल लेखक की अगली पीढ़ी की कहानियों में भी प्रत्यक्ष -अप्रत्यक्ष दोनों बसता है|'कोलकाता एक जादुई नगरी' कहते हुए लेखक उन तमाम कहानियों को जिन्दा कर देता है, जो दूर अनजान देशों में कोलकाता कि प्रतिनिधि थीं | सत्ता के उस तिलिस्म को बेनकाब करता है, जो वामपंथ के नाम पर गद्दी से गलियों तक फैला हुआ है| यही जादू कवि -फिल्मकार बुद्धदेव दास गुप्ता की फिल्मों  और कविताओं में प्रकृति बन कर मुस्कुरा रहा है|कोलकाता बस में एक रूपये  के लिए लडती औरत से लेकर विक्टोरिया मेमोरियल के गुम्बद तक फैला हुआ है|भोर के सपने-सा उतरता हुआ किराये के कमरों में घर बनकर अधलेटा हुआ कोलकाता कविता की आखिरी पंक्ति तक पाठक के अन्दर टहल रहा है|कुल मिलाकर "कोलकाता :कविता के कैनवास"  पर कुछ बिखरे चित्रों में निशांत दर्शन की कला और दर्शन का सौन्दर्य प्रस्तुत करते हैं|बातें सारी होतीं तो इसी दुनिया और  हमारे आस-पास की हैं ,मगर घड़ियों की रफ़्तार में अंधी आँखें देख पाती हैं , टिक टिक के शोर में सुना जा सकता है| आधुनिक अफ़्रीकी साहित्य के पिता माने जाने वाले चिनुआ अचेबे कहते थे -लेखक को इतिहासकार होना पड़ता है|मेरी उनसे सौ प्रतिशत सहमति इसलिए है क्योंकि मैं सोचता हूँ, पत्रकारिता या इतिहास लेखन में समाज के रहन -सहन ,विचार आदि का डाटा मात्र भरा होता है ,वहीँ  साहित्यकार समाज का भावपूर्ण इतिहास लिखता है, जो कई मायनों में बेहतर और उपयोगी है|
                    संग्रह की दूसरी लम्बी कविता कबूलनामा लेखक के आत्म चिन्तन और आत्म-चिन्तन के बहाने  समग्र चिंतन की भी कविता है|मध्यवर्गीय चेतना अपने अस्तित्वमूलक सत्ता की पहचान और स्थापना को लेकर चिंतित है|कभी-कभी मैं पहचान नहीं पाता हूँ ,अपने आपको /शीशे में मेरा चेहरा स्थिर रहता है /हिलता है /डुलता है और कई चेहरे बनता है /दरअसल वह कई मुखौटे रखता है अपने पास /मैं अपने 'मैं' को लेकर सशंकित रहता हूँ.. जीवन संकट के पीछे मध्यवर्गीय चिंता और मध्यवर्ग का ढुलमुल आचरण है ,जो स्वयं को बचाए और बनाये रखने के लिए वह इस्तेमाल करता है| यहाँ जीवन संकट से ज्यादा तवज्जो निशांत पहचान के संकट को देते हैं |अस्तित्व मूलक सत्ता की स्थापना को देते हैं |जीवन को बचा लेने और गुपचुप तरीके से जी लेने की मध्यवर्गीय सोच जिसके लिए मध्यवर्ग ने मुखौटों  और कई चेहरों का आज तक सहारा लिया है|उसे वह एक सिरे से नकार देते हैं| सत्ता सबसे पहले स्वायत्तता चाहती है |लेखक अपनी अस्मिता की स्थापना के लिए स्वतंत्रता चाहता है|आँखें वह नहीं देख पातीं जिसे मैं देखना चाहता था / जुबान वह नहीं बोलती जिसे मैं चाहता था बोलना |मध्यवर्गीय चेतना दो चरित्रों को साथ लेकर चलती है |वह दास भी है और दमनकारी भी|वह स्वतंत्रता चाहता भी है और स्वतंत्र होने देना भी नहीं चाहता |सपने में हमेशा एक सुन्दर स्त्री आती है  और अपने हाथों में बारूद लिए /उसके हाथ बहुत ही कलात्मक होते /किसी कलाकार द्वारा फुरसत में बनाए हाथों की तरह ..अब बारूद लिए स्त्री निश्चय ही कवि द्वारा अपनी अस्मितामूलक सत्ता बचाने और बनाने में उद्धत स्त्री का बिम्बात्मक चित्रण है ,परन्तु उसके हाथों की तारीफ में डूबी अगली पंक्तियाँ  उन तमाम मध्यवर्गीय मानसिकता को उजागर करती है , जो उसकी यौनेच्छाओं को शांत करने में लगी रहती हैं|फ्रायड इसी को लिविडो कहते हैं|माँ में हमेशा एक पुरुष दीखता था मुझे ..उस स्त्री का चित्रण है जो शरीर से स्त्री और चेतना से पुरुष है |यह पंक्ति लान्का के सुप्रसिद्ध विचार वीमेन डज नाट एक्जिस्ट का काव्यात्मक  रूपांतरण है|विचार कविता में ढलकर किस तरह आम जन तक पहुँचती है इसका सुंदर उदाहरण भी|शक ,संशय और डर मध्यवर्ग का चिर परिचित मिजाज है |अपने ही विश्वासघाती व्यक्तिव से मनुष्य इतना आतंकित है कि उसे किसी पर भरोसा नहीं है|माँ , बहन, बच्चे, प्रेमिका सब पर शक करता है ,अपने डर को तुष्ट करने के लिए डराता है ,मनोनुकूल आचार और प्यार करने पर मजबूर करता है|यह भी जानता है कि यह एक मनोरोग है परन्तु वह लाचार है| उसका सबसे बड़ा संकट है पवित्रता, जो उसे विरासत में मिली है|इसे बचाने के लिए वह कई जघन्य अपराध भी करता है| कविता का दूसरा हिस्सा गाँव और शहर के बीच फंसे  मध्यवर्ग का बयान  है |कुछ खेत, कुछ जानवर, कुछ बच्चे, कुछ औरतें और /ढेर सारे झूठ पीछे छूटे जा रहे थे /यात्रा करना जरूरत नहीं मेरी मजबूरी थी/लाभ बहुत ज्यादा नहीं था/ फिर भी पेट के लिए फिरते रहना मेरी मजबूरी है ......शहर पहुँचते ही पवित्रता के सारे आडम्बर  धराशायी हो जाते हैं | पहली बार भीख मांगते हुए मैंने जाना /दुनिया में कुछ भी पवित्र नहीं है /अभी -अभी जाना... शहर के नजदीक आते गाँव का दूर हो जाना सांस्कृतिक बिछुडन का शिकार बनाता है |वहीँ  शहर पवित्रता के ढोंग का चेहरा साफ़ और स्पष्ट करने में भी माहिर है|असलम दा के बहाने एक बौद्धिक और एक सामान्य व्यक्ति के बीच के फर्क को कवि  दिखाना चाह रहा है|अपनी जिन्दगी बिना अनावश्यक पचड़े के जी पाने की सारी भडास निकाली है|कविता के चौथेपन  में कवि डर जैसे शाश्वत सत्य का उद्घाटन कर रहा है|डर जीवन का उपहार भी है और कमजोरी भी |डर का अपना मनोविज्ञान है| राजनीतिक सत्ता खुद  की स्थापना के लिए जनता में डर बनाये रखना चाहती है तो उसी अनुरूप क़ानून भी बनाती है| घार्मिक सत्ता नैतिकता और पवित्रता के नाम पर डर का निर्माण करती है ,तो समाज मर्यादा के नाम पर डर पैदा करता है|व्यक्ति अपने जीवन और अस्मिता की रक्षा के लिए भयभीत रहता है, परन्तु तब तक जब तक भय संभव है|भय के अंतिम क्षणों में साहस की उत्पत्ति होती है| युद्ध नीति कहती है -दुश्मन को हमेशा तीन तरफ से ही घेरना चाहिए, एक तरफ से भागने का मौका देना चाहिए |वर्ना वह अंतिम सांस तक लडेगा | यह डरना नितांत आवश्यक है /डर-डर के ही की जा सकती है सफल यात्रा..कहते ही कवि इंगित करता है कि मध्यवर्गीय मनोविज्ञान में डर अपनी अस्मिता, पवित्रता, नैतिकता, संस्कार आदि को बचाए रखने के लिए ही आता है| यही डर सफलता की कुंजी है, परन्तु यह डर घातक हो जाता है ,जब डर अभिव्यक्ति और सोच की स्वतंत्रता पर हावी हो जाता है| डरो  ताकि डरने से नहीं लगता चुनरी में दाग /भागो ताकि भागने से  सोयी रहती है आत्मा...../ डर-डर कोई स्वप्न देखता है भविष्य के लिए /डर -डर कर कुछ लोग करते हैं आत्महत्या ..... / डर कर कुछ मुंह खुल नहीं पाते ..कविता  के पांचवें हिस्से में कई छोटी-छोटी चीज़ें अहम हो जाती हैं| फुलपैंट ,कुरता , बंडी, रुमाल, छोटी घटनाएँ, रिश्ते ,रिश्तों की छोटी-छोटी मगर अहम यादें ,सबकुछ मध्यवर्गीय जीवन में विशालता के साथ उपस्थित होता हैं |जीवन में इनका अपना हिस्सा है|अपना सरोकार है|निशांत लिखते हैं -छोटे -छोटे शब्दों के भी होते हैं /बहुत बड़े-बड़े अर्थ /बहुत बड़े -बड़े साम्राज्य /एक उम्र में समझ में आती है यह बात /..साइकिल, प्रेम, चाय , झगड़ा ,रूठना - मनाना,एस एम् एस सबकुछ एक आम जीवन में उतना ही महत्वपूर्ण होता है ,जितना कि राज्य के लिए प्रधानमन्त्री, राजनयिक, विदेश नीति, मुद्रास्फीति, परमाणु और मिसाइलें |छोटी चीजों का अस्तित्व कितना महत्वपूर्ण  होता है  और हो सकता हैं या होना चाहिए ,इसे बतलाते हुए निशांत लिखते हैं -इतने बड़े राष्ट्रपति भवन में /एक कबूतर तक नहीं बैठ सकता /बड़े शर्म की बात है /दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में /कबूतरों तक को बैठने के लिए जगह नहीं है .. अर्थात लोकतंत्र  तभी तक सार्थक है, जब तक लोक जिन्दा है|जब तक केंद्र हाशिये से परिचालित है|अन्त्योदय सबसे बड़ा लक्ष्य है|छोटी और मामूली चीजें लोक जैसी महत्वपूर्ण शक्ति का निर्माण करती हैं|इन्हीं छोटी चीजों में मध्यवर्ग का मैं भी महत्वपूर्ण है और इतना महत्वपूर्ण कि आपका जीवन ,आपके अस्तित्व की सत्ता भी इसी मैं पर टिकी है|
'मैं में हम -हम में मैं' कविता कई मैं के मिलने से बने हम और हम की परिधि में उलझे कई मैं की गाथा है| निशांत ने कई मैं की कहानियों को बारीकी से रखा है, जो समवेत रूप में हम की कहानी है|हम ही नहीं हैं 'सबकुछ'/सबकुछ में एक बूँद में एक बूँद हैं हम /हम में ही कुछ है /कुछ में ही मैं हूँ -हम है .. कवितायेँ छात्र जीवन की चुहलबाजियों और यादों से पटी पड़ी हैं|इनमे एक जीवन्तता है|कभी खत्म होने वाला एक सिलसिला  है|कितनी छोटी -छोटी बातों से खुश हो लेते हैं 'हम '/तो कुछ दुखी भी /मसलन हजार रूपये की ब्रांडेड जींस चार सौ में मिल गयी /पडोसी वर्मा की बेटी मुस्कुराकर के बगल से सट कर गयी... |कविता के दौरान निशांत उन तमाम परेशानियों और उधेड़बुनों से  भी दो चार होते हैं, जिनसे छात्र जीवन जूझता है| ....और बार-बार आत्महत्या के बारे में सोचते हुए /कमरे से बाहर निकलता /जीने की मजबूरी को कंधे पर लादे /कमरे में उसी ब्लेड से नाखून काटता ....../ माँ पंखा झलती /और कहती -"आज बहुत उमस है |/रात को बारिस होगी|"/ 'पिता' कहते -"बस ,वह बन जाये 'कुछ'|"...
"फिलहाल सांप कविता" संग्रह की चौथी कविता है|कवि ने इसे बाबा नागार्जुन को समर्पित किया है|बाबा लोक और लोक राजनीति के लोकमान्य धुरंधर थे|कविता का पहला पैरा ही बाबा के प्रति समर्पण को स्पष्ट कर देता है|साथ ही उन तमाम अवसरवादियों और विचारधारा के दलालों के प्रति अपने विरोध को भी मुखर रूप देता है जो पुरस्कार और साहित्य के नाम पर तीसरे दर्जे की राजनीति करते हैं|उम्र बढ़ने के साथ-साथ  वह होता जा रहा है सन्त /बढती जा रही है लोलुपता ..कह कर निशांत तमाम घोंघा बसंतों को बेनकाब कर दते हैं|संपादकों को जनतांत्रिक तानाशाहों से जोड़ कर साहित्य और सियासत के सियारी चेहरे में बेनकाब कर देते हैं|खींसों के खेल से तथा अदृश्य पूँछों की सलामी के सहारे साहित्य की सीढियाँ चढ़ने वाले तमाम लोगों की खबर इस कविता में ली गयी है|एक कवि ने चिल्ला कर कहा /उदारवादी बाजारवादी और विज्ञापन के शिखर कालखंड में /दारू पीने-पिलाने से इनकार करने वाला व्यक्ति /सबकुछ हो सकता है कवि नहीं हो सकता ... |कविता का दूसरा खंड उस व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है, जो पिछली कविताओं में अपने अस्तित्व और उसकी सत्ता की स्थापना के लिए चिंतित था|वह खूंसटों की खबर ले रहा है| अपनी स्थापना की घोषणा कर रहा है|वह बता रहा है कि ये कविता जो वह लिखता है, एक्सपायर्ड दिमाग से बाहर की चीज़ है|माओत्से कहते थे -साहित्य और कला का कार्य हमेशा से ही पर्दाफाश करना रहा है|  सम्पादकीय चरित्र की बखिया  उधेड़ते हुए निशांत साफ़ -साफ़ लिखते हैं एक सम्पादक सरकारी कमरे में तीन तरफ /चाणक्य प्लेटो और ईश्वर के शांति दूत प्रधानमंत्री की तस्वीर लगाये /चौथी तरफ अपनी तस्वीर लगाने की इच्छा  लिये / थर-थर काँपता है रात को बिस्तर में /उसके सपने में आता है एक 'रक्त-स्नात-पुरुष' बीड़ी जलाता और अँधेरे में  पूछता - पार्टनर तुम्हारी पोलिटिक्स क्या है ? जिन झोलाछाप डाक्टरों के कारण साहित्य क्षय रोग का शिकार हुआ है तथा खांसता हुआ दम तोड़ रहा है निशांत ने उन्हें एक- एक कर अपने निशाने पर लिया है|साहित्य अपने आप में एक महान काम है |लोग इसे शौक या प्रसिद्धि के लिए इस्तेमाल करते हैं |निशांत इनके प्रति भी खासा रोष प्रकट करते हुए कहते हैं .. दफ्तर के वक्त पूरी दफ्तरी/कविता के वक्त कविता के अलावा और कुछ नहीं होना चाहिए ..   चीन के प्रसिद्ध साहित्यकार लू-शुन भी क्रन्तिकारी काल का साहित्य निबंध में अपने विचार व्यक्त करते हैं कि.. क्रांतिकारी साहित्य क्रांति के वक्त लिखा साहित्य नहीं बल्कि क्रांति के सम्बन्ध में क्रांतिकारियों द्वारा लिखा हुआ साहित्य होता है,परन्तु क्रांति के वक्त साहित्य नहीं लिखा जाना चाहिए| क्रांति के वक्त केवल क्रांति और साहित्य के वक्त केवल साहित्य|इसके लिए क्रांतिकारी साहित्य थोड़ी देर से भी शुरू हो तो कोई हर्ज नहीं है|काम के प्रति निष्ठा ही काम में परफेक्शन देता है|निशांत कविता में घुसी हुई हर फर्जी प्रवृति को उधेड़ते और  निषेध करते हैं|चौथी लम्बी कविता के चौथे हिस्से में युवा समकालीन कवियों को लताड़ लगाते हैं कि उनका लक्ष्य पूँजी और पद प्राप्ति हो गया है,संपादकों के इर्द-गिर्द मंडराना उनकी फितरत हो गयी है|वे लिखते हैं -पूँजी हमारा परम मित्र है /जाति हमारी पहचान /सूचना जाल हमारे मददगार हैं /आप हमारे पालनहार ..| समकालीन कविता सचमुच फार्मूलाबद्ध हो गयी है|बिलकुल हिंदी सिनेमा की तरह ..थोडा आदर्श, थोडा नाच-गाना, थोडा इमोशनल ड्रामा,थोडा डायरेक्टर,एक्टर का नाम थोड़ी पब्लिसिटी हो गयी फिल्म सौ करोड़ के पार|इसी तरह संपादकों से  मोबाइल  मैनेजमेंट और चलताऊ विमर्शों से कविता में पुरस्कृत गोबर भरे जा रहे है|भाषा को साहित्य की कसौटी पर इसलिए कसा जाता है क्योंकि साहित्य ज्ञान मीमांसा का सर्वोत्कृष्ट साधन है|बिना नये ज्ञान का उत्पादन किये जो कुछ लिखा जायेगा |सब कूड़ा ही तो होगा |अनावश्यक ,बेमतलब ,सिर्फ भाषा चमत्कार  कुछ भी हो साहित्य तो बिलकुल नहीं हो सकता | इस समय के पास नहीं है विचारों की वह सान /जो आन्दोलन की जमीन बना सके ...आगे लिखा है.. ठीक रीति काल में "कन्हाई सुमिरन के बहानो है"की तर्ज पे /वे समझ गये हैं इस समय की कविता पढने के लिए नहीं /सजे-धजे पृष्ठों पर छपने के लिए लिखी जा रही है|निशांत ने बेरोजगारी से मुक्ति और पूँजी के लोभ कविता के जन्म के दो तत्कालीन आधार बताये हैं |सम्पादक विज्ञापनों के लिए कवितायेँ बटोरता है तो कवि चंद लघु पत्रिकाओं की सीढियाँ बनाकर रोटी,फिर ऐशो -आराम तक पहुंच बनाता है|जनता को भी कवि कठघरे में खड़ा करता है-अब, खून नहीं खौलता किसी को सरेआम हत्या पर /बस अखबार में रिपोर्ट लिखी-पढ़ी जाती है / काली पट्टी बांधकर प्रदर्शन किया जाता है /मोमबत्ती जलाकर जुलूस निकाली जाती है /अंत में सारी घटनाएँ एक फिल्म में तब्दील हो जाती हैं | पांचवें खंड में कविता के अंतर्वस्तु के सम्बन्ध में बात करती है|कविता का डायरी और  छोटी चीजों का इतिहास होते जाना आज की कविता की विशिष्टता है| कविता की शैली कुछ कुछ समाचार शैली है|घटनाओं को विस्तार से समझाती सुंदर लड़की के नीचे तुरत-फुरत की घटनाएँ शब्द बनकर दौड़ती हैं|मगर घटनाओं के  विस्तारीकरण से निशांत आपको आपको बोर नहीं करते|कवितायेँ सीधी-सपाट भाषा में सत्ता की तमाम साजिशों का पर्दाफाश करती चली जाती है, जिसमे केंद्र चूतड़ अटकाए जमा है और हाशिया चूतड लिए धक्का मुक्की करता केंद्र की ओर दौड़ रहा है|किसी को सम्पूर्ण परिवर्तन नहीं चाहिए ; हिस्सा चाहिए लूट में हिस्सा|हर परिवर्तन बस अपनी स्थिति तक के परिवर्तन की आकांक्षा तक सीमित है |
                    'कैनवास पर कविता' रंगों की वैचारिकी को शब्दबद्ध करने का सुंदर प्रयास है|इसे रंगों का भावानुवाद भी कह सकते हैं ,जिसमे कुछ -कुछ दार्शनिक टच भी मिलता है|संग्रह के इस अंतिम खंड में निशांत साबित करते हैं कि कला वैचारिकी का माध्यम भर है|कला का असल उद्देश्य नई वैचारिकी का जन्म है|चाहे बात रंगों में हो या शब्दों में नई बात अगर सलीके से  कही जाएगी,तभी महत्वपूर्ण होगी|अंतिम पंक्ति इसे और भी पुष्ट करती है|जब कुमार अनुपम की पेंटिंग्स को देखते हुए कहते हैं -वह लिखता है कविता रंगों की भाषा में |
       संग्रह को पढ़ते हुए पाठक यह महसूस करता है कि निशांत अपनी कविताई और समय के प्रति प्रतिबद्ध हैं|वह समस्याओं पर पैनी और निडर नजर रखते हैं|सबसे ज्यादा उनकी बेबाकी मुझे प्रभावित करती है|पांच लम्बी कविताओं से वे विश्वास दिलाते हैं कि कविता की पटकथा और शिल्प में आज भी नये और सार्थक प्रयोग हो रहे है|कविता में मुक्तिबोध के चिरपरिचित वाक्यों का प्रयोग उनके परम्पराबोध को भी दर्शाता है| मेरे विचार से जवान होते हुए लड़के का कबूलनामा के बाद उनका यह दूसरा संग्रह जी हाँ लिख रहा हूँ भी एक योग्य प्रयास है,जिसके लिए निशांत साधुवाद के पात्र हैं|आशा है कि आगे भी उनकी रचनाधर्मिता से साहित्य लाभान्वित होता रहेगा|

       अरमान आनंद,शोध-छात्र ,हिंदी विभाग बी.एच.यू. 07499261303